Thursday, September 10, 2009

एक और स्वतंत्रता संग्राम- डा. प्रमोद कुमार

एक और स्वतंत्रता संग्राम-डा. प्रमोद कुमार

प्रथम श्रेणी का वातानुकूलि‍त कम्पार्टमेंट सचमुच ही बहुत आरामदेह होता है । मई महीने में भी मुझे नवम्बर की ठंड़ का अहसास हो रहा था । खि‍ड़कि‍यों पर चमचमाती धूप से सफेद पर्दे कम्पार्टमेंट के वातावरण को और भी रूमानी बना रहे थे । कम्पार्टमेंट की सामने वाली दीवार पर एक "सीनरी" लगी थी जि‍समें हरे-भरे पेड़-पौधे और खि‍ले हुए रंग-बि‍रंगे फूलों का लुभावना दृष्य था । पेड़ के नीचे एक सुन्दर मोर अपने पंख फैला कर नाच रहा था । एक बच्चा उसे देखकर हँसता हुआ दि‍ख रहा था । सचमुच ही दृश्य बहुत सुन्दर लग रहा था ।

मैं बहुत खुश था । कम्पनी ने मुझे पदोन्नत करके लखनऊ कार्यालय का महा प्रबन्धक नि‍युक्त कि‍या था । लखनउ€ मेल के इस वातानुकूलि‍त डि‍ब्बे में बैठा मैं अपने भवि‍ष्य के बारे में सोचने लगा -"लखनऊ में कम्पनी का दि‍या आलीशान मकान होगा, कार होगी, नौकर-चाकर होंगे । तनख्वाह में 5000 रूपये मासि‍क की वृद्धि‍ होगी । कम्पनी की उत्तर प्रदेश की सारी शाखाएँ मेरे आदेश पर कार्य करेंगी ।" मैं यह सब सोचकर बहुत ही रोमांचि‍त हो रहा था ।

मेरी बर्थ नीचे वाली थी । मैंने खि‍ड़की का पर्दा हटाया और बाहर देखने लगा । अनायास मेरी नज़़र एक बच्चे पर पड़ी जो प्लेटफार्म पर यात्रि‍यों द्वारा फेंके गये पत्तों से जूठन इकट्ठी कर रहा था । यह देखकर मुझे अपनी गरीबी और संघर्ष की याद आ गई जि‍सके आईने में मेरा अतीत झलकने लगा ।

गाँव का एक कच्चा मकान, जि‍समें मैं अपनी बूढ़ी माँ और बड़े भाई के साथ रहता था । बापू बचपन में ही मर गए थे । तब मैं 15 साल का था । बापू चाहते थे कि‍ मैं पढ़-लि‍खकर एक दि‍न बड़ा आदमी बनूं, इसलि‍ए वह मुझे कुछ काम करने नही़ देते थे । वे खुद देर तक भट्ठी पर कार्य करते । मैं जब भी कहता - "बापू आराम कर लो", बापू और तेजी से काम में जुट जाते । वे कहते, "बेटे! तुझे बड़ा आदमी बनाना है । खूब पढा़ना है, शहर भेजना है । इस सबके लि‍ए पैसे चाहि‍ए न ! मुझे काम करने दे।" ऐसा कहते हुए वे भट्ठी से गर्म लोहा नि‍कालकर उसे हथौड़े से पीटने लग जाते ।

सचमुच लोहार की जि‍न्दगी बड़़ी कठोर होती है । सारे दि‍न काम करने पर भी वे एक दि‍न में पाँच-सात दराति‍याँ ही बना पाते । कभी-कभी दो-चार चि‍मटे ज्यादा बना लेते लेकि‍न इन सब की कीमत 30-35 रूपये से ज्यादा थोड़े ही होती थी । बड़ा भाई और माँ भी बापू के काम में हाथ बटाते । भाई धौकनी फुला-फुला कर भट्ठी को लाल करता और माँ ठोक-पीटकर दराति‍यों और चि‍मटों को बेचने लायक बनाती । दराति‍यों पर लकड़ी के हत्थे लगाती, चि‍मटों को मोड़कर बराबर करती । हर सोमवार पास के एक गाँव में हाट लगता था, जहाँ बापू बना माल बेचने जाते थे । और यही करते-करते एक दि‍न बापू मर गए ।

माँ और बड़े भाई ने मेहनत कर-कर के मुझे पढ़ाने के लि‍ए शहर भेजा । मैं वहाँ हॉस्टल में रहकर पढ़़ने लगा। माँ पेट काटकर पैसा बचाती और मुझे भेजती । मैंने बी.ए. पास कर लि‍या । धीरे-धीरे मेरा एम.बी.ए. भी पूरा हो गया और इसी कम्पनी में मुझे "मैनेजमेंट ट्रेनी" की नौकरी मि‍ल गयी । फि‍र मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । मैं आकाश छू लेना चाहता था । शहर में रहकर कम्पनी के कामों में जुटा रहता । मैंने कभी अच्छे-बुरे का ध्यान नहीं कि‍या और जो सीढ़ी ऊँचाई की ओर जाती, उसी पर चढ़ता गया । बस ध्यान रखा तो इस बात का कि‍ मै ऊँचे से ऊँचे पद पर पहुँचू । यही कारण है कि‍ मैं 35 साल की छोटी सी उम्र में इस कम्पनी का महाप्रबंधक बन गया । सच, इस महाप्रबंधकी तक पहँुचने में मैंने अपनी बूढ़ी माँ के बारे में कभी नहीं सोचा, जो एक-एक पैसा जोड़ कर हर महि‍ने मुझे मनीआर्डर भेजा करती थी ।

गाड़ी चलने में पाँच मि‍नट शेष थे । तभी कम्पार्टमेंट में एक वृद्ध व्यक्ति‍ दाखि‍ल हुआ और मेरे पास वाली सीट पर बैठ गया । मैं उसे घृणा की दृष्टि‍ से देखने लगा । वृद्ध की उम्र लगभग 75-80 साल की होगी । उसके हाथ में एक पुराना छाता था । बाल पूरे पके हुए, पर चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी । उसने पुराना सा कुर्ता-पाज़ामा पहना हुआ था । उसके शरीर से पसीने की गंध आ रही थी । मुझे उसका पास बैठना बि‍ल्कुल अच्छा नहीं लगा ।

मैंने गुस्से में कहा, "ए ! तुम कहाँ घुस आये हो ? जानते नहीं कि‍ ये ए.सी. कम्पार्टमेंट है ? उधर कहीं दूसरे डि‍ब्बे में जा कर बैठो ।"

तभी अन्य एक यात्री जो मेरी बगल वाली बर्थ पर बैठा था चि‍ल्लाते हुए बोला, "सुना नहीं तुमने, इस डि‍ब्बे से नीचे उतरो । इस डि‍ब्बे में बैठने के लि‍ए ए.सी. का टि‍कट चाहि‍ए ।"

लेकि‍न वह वृद्ध चुपचाप बैठा रहा । गाड़ी चलने लगी ।

तभी कन्डक्टर आया । मैंने उससे तुरन्त कहा - "देखि‍ए कन्डक्टर साहब, एक गंवार मेरे पास वाली सीट पर बैठ गया है । कृपा करके इस भि‍खारी को डि‍ब्बे से बाहर नि‍कालि‍ए । इसने सारे डि‍ब्बे के वातावरण को दूषि‍त कर दि‍या है । ऐसे व्यक्ति‍ भी यदि‍ वातानुकुलि‍त श्रेणी में चलने लगेंगे तो भले लोग कहाँ जायेंगे ?"

कन्डक्टर ने वृद्ध को नफ़रत की नि‍गाह से देखते हुए कहा- "टि‍कट दि‍खाओ।" वृद्ध ने पुराने कपड़े के थैले से एक पुरानी डायरी नि‍कालकर उसमें से एक छोटी सी पास बुक नि‍कालकर दी, जि‍समें उसका फोटो लगा था । यह एक "फ्री-कार्ड पास" था जो इस देश के चुनिंदे स्वतंत्रता-सेनानि‍यों को दि‍या जाता है ।

कन्डक्टर ने उसे गौर से देखते हुए कहा,"लेकि‍न तुमने कोई आरक्षण तो करवाया नहीं।"

वृद्ध ने बहुत सम्मानजनक तरीके से जवाब दि‍या, "कन्डक्टर साहब, मेरा आज अलीगढ़ पहुँचना बहुत जरूरी है। समय की कमी के कारण मैं आरक्षण नहीं करवा पाया।"

कन्डक्टर ने रोब झाड़ते हुए कहा, "माफ करो, इस डि‍ब्बे में जगह नहीं है । तुम कि‍सी द्वि‍तीय श्रेणी के कम्पार्टमेंट में चले जाओ ।"

वृद्ध ने वि‍नम्रतापूर्वक कन्डक्टर से नि‍वेदन कि‍या "साहब, इस डि‍ब्बे में कुछ सीटें खाली हैं। यह "पास" भी वातानुकूलि‍त श्रेणी में मान्य है। यदि‍ आप एक सीट मुझे नहीं दे सकते तो मैं कि‍सी दूसरे डि‍ब्बे में चला जाता हूँ इतना कहकर वह चुपचाप डि‍ब्बे से बाहर जाने लगा ।

तभी मेरे सामने वाली सीट पर बैठा एक व्यक्ति‍, जो बड़ी देर से हमारी बातें सुन रहे था बोला "आप सब लोग इस बुजुर्ग के साथ इतना अभद्र व्यवहार क्यों कर रहे है ? इस सज्जन व्यक्ति‍ ने नम्रता के साथ नि‍वेदन कि‍या है कि‍ वह कि‍सी कारणवश पहले आरक्षण नहीं करा सके और उनका आज अलीगढ़ पहुँचना बहुत जरुरी है । यहीं नहीं इनके पास "कार्ड पास" भी है जो भारत सरकार ने कुछ गि‍ने-चुने इज्ज़़तदार व्यक्ति‍यों को ही दि‍ये हैं जि‍न्होंने इस देश की आजादी के लि‍ए अपना अमूल्य योगदान दि‍या था ।"

व्यक्ति‍ ने वृद्ध को रोकते हुए कहा, "आप इधर ही बैठ जाइये। यहाँ कोई नहीं बैठा है ।"

वृद्ध उस व्यक्ति‍ के पास वाली सीट पर बैठ गया । उस व्यक्ति‍ ने कन्डक्टर से गुस्से में कहा, "मि‍स्टर कन्डक्टर ! आप क्या ख़ाक कंडक्टर है ? आपको यात्रि‍यों से अच्छी तरह "कन्डक्ट" करना भी नहीं आता । आपने अभी दो मि‍नट पहले 34 नम्बर बर्थ एक यात्री को 150 रूपये लेकर दी है । क्या उसके पास आरक्षण था ? उसके पास तो ए.सी. टि‍कट भी नहीं था, फि‍र भी आपने उसका टि‍कट ए.सी. का बनाया और उसे आरक्षण दि‍या । अरे! आपको तो शर्म आनी चाहि‍ए । देखि‍ए, यह सीट अभी खाली है यदि‍ इस सीट का कोई दावेदार आएगा तो इन्हें मैं अपनी सीट दे दूंगा । और हाँ, कृपया भवि‍ष्य में बुजुर्गों से सज्जनता से पेश आये।"

उस व्यक्ति‍ की बातें सुनकर कन्डक्टर आगे चला गया । मैं भी झेंप गया और चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया ।

गाड़़ी तेज़ रफ्तार से दौड़ी जा रही थी । वृद्ध सामने वाली व्यक्ति‍ से बातें कर रहा था । वार्तालाप गाड़ी के शोर के कारण कुछ-कुछ सुनाई पड़ रहा था । उनकी बातों से पता चला कि‍ उस व्यक्ति‍ का नाम वीर सिंह है । सेना में एक कर्नल हैं वह, और जि‍स वृद्ध से वह बातें कर रहा है उनका नाम इरफ़ान महमूद है ।

तभी वीर सिंह ने वृद्ध से कहा, "दादा जी, आपने तो स्वतंत्रता संग्राम में भाग लि‍या था । कुछ उस समय की बातें सुनाइये, मुझे अच्छी लगेंगी ।"

वृद्ध कुछ सोचने लगे । गम्भीरता की कुछ लकीरें उनके माथे पर उभर आई । वह भावपूर्ण मुद्रा में बोले- "बेटे, क्या बताऊँ । उस समय का माहोल ही कुछ और था । व्यक्ति‍ अपने बारे में कम और देश के बारे में ज्यादा सोचता था । मैं एक क्रान्ति‍कारी था । 1942 के आन्दोलन में मुझे जेल भेजा गया । तरह-तरह की यातनाएं दी गई, लेकि‍न दि‍ल में वतन के लि‍ए मर-मि‍टने का ज़ज्बा था । कठोर से कठोर यातनायें हमने झेली । देश आजाद हुआ । हम जेल से रि‍हा कर दि‍ये गए । मैं अलीगढ़ में रहने लगा । मैंने शादी नहीं की, लेकि‍न अब अलीगढ़ में एक अनाथालय का संचालन कर रहा हूँ । मैंने वृद्धों के लि‍ए एक आश्रम भी खोला हुआ है । देशवासि‍यों की सेवा करते-करते, समय व्यतीत हो रहा है ।

इरफ़ान मि‍याँ आगे बोलते रहे, "आज लोग धर्म, जाति‍ और प्रदेश की बातें करते हैं । एक दूसरे से लड़ते हैं । जोड़ने के बजाय देश को तोड़ने में लगे हैं । हमने अपने तुच्छ स्वार्थों को कभी अहमि‍यत नहीं दी । उस समय यह सब कुछ नहीं था ।"

कर्नल वीर सिंह ने बीच में टोकते हुए कहा, "दादा जी! आप सही कहते है । जब ये लोग आपको डि‍ब्बे से नीचे उतरने को कह रहे थे तो मुझे महात्मा गाँधी जी के जीवन की वह घटना याद आ रही थी, जब उन्हें दक्षि‍ण अफ्रीका में एक अंग्रेज ने प्रथम श्रेणी के डि‍ब्बे से इसलि‍ए बाहर नि‍काल दि‍या था क्योंकि‍ वे काले थे । लेकि‍न आज मुझे यह देखकर गुस्सा नहीं, शर्म महसूस हो रही थी कि‍ इस आजाद देश में लोग उस इन्सान को डि‍ब्बे से बाहर नि‍काल रहे है, जि‍सने इस देश को आजाद कराने में अपना सर्वस्व समर्पि‍त कर दि‍या । अंग्रेजों का भारतीयों के लि‍ए खि‍लाफ दुर्व्यवहार तो सुना था, लेकि‍न एक स्वतंत्रता सेनानी को बेइज्ज़त करके डि‍ब्बे से बाहर नि‍कालना और वह भी उस देश के नागरि‍कों द्वारा जि‍नके लि‍ए उसने अपनी जवानी जेल में बि‍तायी हो, सचमुच ही यह बहुत शर्मनाक है । जि‍स स्वतंत्रता के वृक्ष को सेनानि‍यों ने अपने खून से सींचा, क्या उसका फल चखने का भी अधि‍कार उनको नहीं है ?"

मैं अपनी सीट पर बैठा उनका वार्तालाप सुन रहा था । मुझे वृद्ध के प्रति‍ कि‍ए गए अपने व्यवहार पर पछतावा हो रहा था ।

तभी डि‍ब्बे में चाय वाला आया । गाड़ी कि‍सी स्टेशन पर रुकी थी । वीर सिंह ने तीन कप चाय ली । एक वृद्ध को दी, एक कप मुझे देते हुए ख़ुद अपने कप से चाय पीने लगे । मैं संकोच करते हुए चाय पीने लगा । गाड़ी फि‍र चलने लगी ।

वीर सिंह ने बात आगे बढ़ाई- "दादा जी! जानते है, मेरे नानाजी भी स्वतंत्रता सेनानी थे । उन्हें सरकार ने देश सेवा के लि‍ये ताम्र-पत्र दि‍या था । वे भी पाँच साल लाहौर जेल में रहे थे । वे अब इस दुनि‍या में नहीं है ।"

इरफ़ान मि‍याँ ने उत्सुकता से पूछा- "क्या नाम था उनका?"

वीर सिंह ने बताया- "श्री जयसिंह।"

इरफ़ान मि‍याँ के चेहरे पर स्मृति‍ की एक लहर दौड़ गई । वे तुरंत बोले, "अरे ! तुम जयसिंह के पोते हो । उन्हें तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ। लाहौर जेल में हम साथ-साथ थे । मुझे आज भी याद है वे दि‍न जब मैं जेल तोड़ कर भागा था । इस कोशि‍श में मुझे जेलर ने पक़ड़ लि‍या था और बहुत मारा था । जेलर की बेतों की मार से मैं लहू-लुहान हो गया था । उस समय जयसिंह ने ही मेरी मरहम-पट्टी की थी । वे सचमुच भले इन्सान थे । पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के साथ हमने हँसते-हँसते लाठि‍याँ खाई थी । वतन के लि‍ए जीने और मरने का भी क्या नशा होता है । न हमें भूख की चि‍न्ता थी, न आन की फि‍क्र । बस एक ही लक्ष्य था - देश की आजादी । त्याग का ज़ज्बा रग-रग में समाया हुआ था । सच्चाई और ईमानदारी की भावना मन में बसी थी । एक दूसरे पर वि‍श्वास था । देश के प्रति‍ प्रेम का अर्थ लोग समझते थे । लेकि‍न आज सब कुछ बदल चुका है । व्यक्ति‍ खुद में ही सि‍मटकर रह गया है । देश को अपने तुच्छ स्वार्थ पूर्ति‍ के लि‍ए बेच रहा है । पि‍छले कुछ सालों में मैंने आदमी की गि‍रावट का वह मंज़़र देखा है, जो शायद मैं अंग्रजी राज में नही़ं देख पाया था ।"

इरफ़ान मि‍याँं के चेहरे पर अवसाद के भाव थे । वे चुप नहीं हुए और फि‍र बोलने लगे, "आज का आदमी अपनी स्वार्थपूर्ति‍ के लि‍ए इस कदर गि‍र गया है कि‍ वह उन्हीं लोगों का अहि‍त करने लगा है जो उसकी सफलता में कभी सहायक बने थे । जि‍न्होंने उसे आगे बढ़ने में सहयोग कि‍या था । आज का आदमी प्यार, वि‍श्वास, क्षमा, सच्चाई, उपकार, आदर - इन शब्दों का अर्थ नहीं समझता। यहाँ तक कि‍ वह प्यार के बदले में आघात करता है । क्षमा करो तो दुर्बल समझता है । वि‍श्वास करो तो धोखा देता है । उसको सच कहो तो नाराज़ होता है । उस पर उपकार करो तो नकारता है, और यदि‍ आदर करो तो ख़ुशामद समझता है । आज का व्यक्ति‍ इन्सानि‍यत नहीं जानता। व्यक्ति‍ के महत्व उसके कपड़े धन व पद से करता है, उसकी शालीनता, ईमानदारी और परि‍श्रम से नहीं ।"

वीर सिंह ने बीच में ही कहा, "दादा जी, आप सही कहते हैं । आज का व्यक्ति‍ उच्च पद इसलि‍ए प्राप्त करना चाहता है ताकि‍ वह समाज एवं व्यवस्था को अपने फायदे के लि‍ए प्रयोग कर सके । पहले ओहदे का मतलब जि‍म्मेदारि‍याँ होती थी ।आज ओहदे का मतलब शक्ति‍ है आज व्यक्ति‍ का बडप्पन उसके पैसे से परखा जाता है ।"

इरफ़ान मि‍याँ ने चि‍न्ति‍त भाव से कहा, "बेटे ! हम अंग्रेजों से लड़े क्योंकि‍ वे वि‍देशी थे और देश को गुलाम बनाकर बर्बाद कर रहे थे । हम अपनी लड़ाई में सफल भी हुए । लेकि‍न आज अपने ही लोग घर को बर्बाद कर रहे हैं । मुझमें अपने ही लोगों से लड़ने की हि‍म्मत नहीं है । मैं तो अब बहुत वृद्ध भी हो चुका हूँ । हमें यदि‍ पता होता कि‍ हमारे ही घर के लोग इस घर को आग लगायेंगे तो देश को स्वतंत्र कराने के लि‍ए कभी नहीं लड़ते । आज के आदमी का न तो देश प्रेम से कोई वास्ता है और न ही इन्सानि‍यत से।"

इरफ़ान मि‍याँ बोलते रहे, "बेटा ! आज एक और स्वतंत्रता संग्राम लड़ने की जरूरत है जो वि‍देशि‍यों से नहीं, बल्कि‍ उन बुराइयों के खि‍लाफ हो जो देश की प्रगति‍ में बाधक हैं । बेईमानी, नफ़रत, झूठ, घृणा, गरीबी, धोखा,अपकार, आदेि‍ बुराईयाँ सारे देश में घर कर गई हैं । इनके रहते हम देश प्रेम, त्याग, नैति‍कता, इन्सानि‍यत, ईमानदारी जैसे मूल्यों को नहीं पनपा पाएंगे, और न ही इस देश को तरक्की की राह पर ले जा सकेंगे ।"

गाड़ी रूक रही थी । शायद अलीगढ़ आ गया था । वृद्ध इरफ़ान मि‍याँ उतरते हुए मुझसे बोले, "माफ करना साहि‍ब मेरे यहां बैठने से आपको जो तकलीफ हुई, उसके लि‍ए मैं क्षमा चाहता हूँ ।" - ऐसा कहकर उन्होंने वीर सिंह से ख़ुदा हाफ़ि‍ज कहते हुए अपना छाता बगल में दबाया और अपना पुराना सा थैला हाथ में ले गाड़ी से उतर गए ।

डि‍ब्बे में बि‍ल्कुल शान्ति‍ छा गई, लेकि‍न मेरे मन में एक तूफान उठ रहा था । मैं अपने आपको बहुत तुच्छ महसूस कर रहा था । मुझमें अपने महाप्रबंधक बनने का घमंड चूर हो गया था । वह वृद्ध मुझे हि‍मालय से भी ऊँंचा लग रहा था । अपनी जवानी कुर्बान करके वह इस वृद्धावस्था में भी अनाथों व वृद्धों की सेवा कर रहा था । वृद्ध की कही बातों ने मुझे हि‍लाकर रख दि‍या ।

गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी । मेरी नि‍गाहें फि‍र खि‍ड़की के पर्दों पर पड़ी । वे अब मुझे धुले नहीं लग रहे थे । मैंने सामने "सीनरी" को देखा । "सीनरी" के हर पेड़ मुझे ठूॅठ लग रहा था । पेङों के पास सब मुरझायें हुए फूल थे । मोर चुपचाप खड़ा रो रहा था । उसके पंख बन्द थे । "सीनरी" के दृश्य वाला बच्चा भी अब हंस नहीं रहा था बल्कि‍ वह जूठी पत्तलों के बीच खाना ढूंढ़ रहा था ।

मुझे अपनी बूढ़ी माँ याद आ रही थी । नैति‍कता और दायि‍त्व का एक और स्वतंत्रता संग्राम मेरे मन में हि‍लोरे ले रहा था ।

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