छाया-माया-ड़ा प्रमोद कुमार
बैंक की नौकरी में ज्यादा दिन तक एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरण होने से नही बचा जा सकता । मुझे भी ब्रांच मेनेजर बनाकर दिल्ली से शिमला भेज दिया गया । पत्नी को साथ ले जाना सम्भव नहीं था क्योकि वह दिल्ली प्रशासन में अध्यापिक थी ।पत्नी एवं बच्चे को दिल्ली में छोड़ मैंने शिमला की ब्रांच का चार्ज ले लिया । ब्रांच माल रोड पर थी ।दिन तो ब्रांच में कट जाता था पर सायंकाल अकेलापन खटकता था , इसलिए मेंने शिमला विश्वविद्यालय में एम बी ए में दाखिला ले लिया । क्लासें सांय 6.30 से 9 बजे की बीच लगती थी । जब क्लासें नही होती तो मैं पुस्तकालय में बैठकर पढ़ने लग जाता।कभी कभी कालिज की केन्टीन में चाय पीने चला जाता ।
एक दिन में कालिज की केंटीन में चाय पी रहा था तभी एक लड़की ने मेरे पास आकर पूछा, -शायद आप भी एम बी ए प्रथम वर्ष के छात्र है । मैंने भी आज ही दाखिला लिया है । मेरा नाम माया है । क्या आप पिछले हप्ते के क्लास नोट्स मुझे एक दिन के लिए दे सकते हैं ?''
ठहां क्यो नहीं, ये लीजिए । बाई दि वे,मेरा नाम मोहन है ।'' ऐसा कहते हुए मैंने अपने नोट्स उसे दे दिये । हम दोनों ने साथ-साथ चाय पी और घर की ओर चल दिए ।
माया का घर रास्ते में ही पड़ता था , सरकुलर रोड़ पर । वह अपने घर चली गई । क्लास के बाद अक्सर रोज़ हम साथ साथ घर आते । एक बार वह अपने घर भी ले गई । अपनी बूढी मां से मिलवाया । उसके घर मे वह और बस बूढा मां । मां को भी बेटी की चिंता रहती थी । माया सुबह 9 बजे निकलती थी । 9.30 बजे सुबह से सांय 5 बजे एक प्राइवेट फर्म में कार्य करती थी और उसके बाद कालिज जाती ।
माया एक सुदर लड़की थी , रंग जैसे दूध में गुलाब की पखुंड़ियों का रस मिला दिया हो । हिमाचल की लड़की थी वह । लम्बाई 5.6 इंच के लगभग । तीखे नयन नक्श । इकहरा परंतु सुड़ोल बदन । सफेद सलवार सूट मे एक परी सी लगती थी।
धीरे धीरे घनिष्टता बढती गई । वह अक्सर दिन में भी मेरे आफिस फोन करती । घर की व पढाई की सब परेशानियां मुझसे ही बताती । हम छुट्टी के दिन घंटों झरने के किनारे बैठे रहते । कभी छोटी पहाड़ी पर और कभी देवदार के पेड़ों के नीचे ।
धीरे धीरे एक साल बीत गया । हम दोनों ने पहले साल एम बी ए प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया ।
एक दिन हम सेबों के बाग में बैठे थे । माया मेरे गोद में अपना सिर रख कर लेट गई । उसके लम्बे बाल मेरी गोद में बिखर गए । उसका सुदंर चेहरा ऐसा लग रहा था मानों काले बादलों के बीच चांद । मेरी हथेली को अपने दोनों हाथो में लेकर माया ने कहा था , मोहन तुम कितने अच्छे हो । तुम न होते तो मैं अकेली रह जाती ''
''माया , तुम भी तो कितनी अच्छी हो'', मैंने भी उससे कहा था ।
''लेकिन तुम से कम । इस संसार में व्यक्ति तो बहुत है परंतु अच्छे इन्सान मिलना बहुत मुसकिल है''- माया ने मेरी आंखे में आंखे डालकर कहा था । मुझे पता नहीं उस समय क्या हुआ । मैंने माया का माथा चूम लिया था।
समय इसी तरह व्यतीत होता रहा और फिर दूसरे साल का परीक्षा परिणाम आया । परीक्षा परिणाम बताने माया मेरे घर आ गई और मुझ से लिपट गई । मेरे गालों को चूमती हुई बोली , ''मोहन तुम प्रथम आए हो और मैं द्वितीय । हम दोनों प्रथम श्रेणी में एम बी ए द्वितीय वर्ष पास कर गये । ''
मुझे उसका लिपटना अच्छा लगा । साथ ही उसकी गर्म गर्म सांसे जब मेरे चेहरे से टकराई तो एक अजीब सा अहसास हुआ । मन करने लगा जेसे माया को जोर से अपनी बाहों में समा लूं । लेकिन तभी दिमाग ने सोचा - ''नहीं नहीं .. मोहन तुम शादी शुदा हो । तुम्हे़ आगे नहीं बढ़ना चाहिए ।'' और ऐसा सोचते हुए मैंने घडी की ओर ईसारा किया । 9 बज चुके थे । हम ऑफिस की ओर निकल पड़े । रास्ते में हम एक मिठाई की दूकान पर रुके । मैंने माया का मुंह मीठा कराया और सांय मिलने का वादा करके हम अपने अपने आफिस चले गए ।
आफिस आकर मैं कार्य करने लगा लेकिन मेरा मन माया के ख्यालो में खोया रहा । उसकी बाहों की जकड़न मुझे याद आने लगी । उसके वे रेशमी बाल, सुन्दर मासूम चेहरा और उसकी प्यार भरी चुम्मी - सब एक एक करके फिल्म के पर्दे की तरह मेरी नज़रों के सामने आने लगी । मैं मन ही मन सोचने लगा ,''मोहन यह तुम ठीक नहीं कर रहे हो । तु्म्हारी पत्नी और एक बच्चा है । माया अविवाहिता है । उसको बर्बाद करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं ।'' मुझे यह सब सोचते सोचते सिर दर्द होने लगा । मैंने कॉफी का आर्डर दिया । कॉफी पी । कुछ देर कार्य किया ।
तभी तीन बजे माया का फोन आया , ''आज मैं नही आ पाऊंगी । मुझे देखने वाले आ रहे हैं ।''
अगले दिन सुब 6 बजे ही वह मेरे घर आ गई । कहने लगी , ''मोहन मेरी सगाई हो गई । और ऐसा कहकर मुझे अपनी बाहों में भरकर चूमने लगी । मुझे भी जाने क्या हुआ । मैंने भी उसे चुम लिया । तभी मेरा दिमाग काम करने लगा, ''नहीं मोहन, यह सब गलत है । इसकी शादी होने वाली है । इसकी मां तुम पर यकीन करती है । तुम इसको और इसकी मां को ही धोखा नहीं दोगे बल्कि इसके होने वाले पति के खिलाफ भी पाप करोगे । रोक लो अपने आपको । यह पाप है । तुम ऐसा कर अपनी पत्नी को भी धोखा दोगे ।'' मैं उसके आगोश से दूर हो गया और रसोई में चाय बनाने चला गया ।
''मोहन कया बात है ? क्या मैं सुंदर नहीं ? मैं तुमसे प्यार करती हूं ''- उसने कुछ देर बाद धीरे से कहां ।
''नही माया नहीं । यह सब पाप है । तुम जानती हो मैं शादी शुदा हूं । यह ठीक नहीं है '', मैंने जवाब दिया ।
माया चाय पीती हुई बोलती रही , ''मोहन तुम पढे लिखे हो कर दुनिया के बनाए हुए नियमों के गुलाम हो गए हो । ये सब नियम समाज के ठेकेदारों ने साधारण व्यक्तियों के लिए घड़े हैं । प्रकृति ने आदमी
और औरत बनाई है । प्रकृति एवं उसकी बनाई चीजों को नकारना अपने आपको धोखा देना है । ये शारीरिक जरुरते हैं , समय की मांग है । ये सब प्रकृति की निगाहों में कोई पाप नहीं है । ये पाप-पुण्य की परिभाषा हर युग में बदलती रहती है । यह समाज के ठेकेदार अपने फायदे के हिसाब से घड़ते रहते है । क्या तुम उन ठेकेदारों द्वारा बनाए गए नियमों को अपनी ओर मेरी खुशियों से ज्यादा महत्व देते हो ?''
''नहीं माया, मेरी आत्मा गवाही नहीं देती । भगवान सब देखता है । '' मैंने कहा ।
माया बड़ी तार्किक बुद्धि की लङकी थी । कहने लगी , ''क्या अवैज्ञानिक बाते करते हो । आदमी चांद पर पहुंच गया और तुम हो कि दकियानुशी बाते करते हो । कोई आत्मा-वात्मा नहीं होती । भगवान भी धर्म के ठेकेदारों द्वारा अपने फायदे के लिए घड़ी गयी चीज है । ये सब साधारण व्यक्तियो के लिए अफ़ीम का कार्य करती है । तुम तो समझदार हो , ऐसी बेवकूफी वाली बाते क्यो करते हो ?''
''नहीं माया, मन को वश में रखना चाहिए । ये इन्द्रिया हमेशा धोखा देती है । क्षणिक आनंद के लिए अपने को मत गिराओ ,'' मैने दार्शिनिक मुद्रा में कहा ।
माया ने तुरंत जवाब दिया , ''कब तक मन और इन्द्रियों से दूर भागोगे । इन इन्द्रियो से ही तो संसार चलता है । ये देखने, सुनने, सुंघने, स्पर्श और स्वाद की अनुभूतियां ही तो यह संसार चलाती हैं और हृदय में आनंद का भाव पैदा करती है । हर चीज समय से बंधी है , समय निकलने पर ये सभी भी कुंठित हो जाएगी । समय को मत नकारों । क्या मानव मन पर कोई भी सांसारिक नियम प्रतिबंध लगा सकते हैं ? क्या व्यक्ति की सोच को कोई बांध सकता है ? क्या किसी फूल को देखना, सूघंना या स्पर्श करना पाप है ? क्या किसी फूल को चूमना बुरा है ? क्या कोई फूल आपके ज़िस्म से टकराए और उसके टकराने की आहट कानों को अच्छी लगे तो पाप है ? ये बाग़ के माली के साथ कोई द़गा नहीं । मैं प्रकृति के दिए हुए अनमोल तोहफों - इन्द्रियों को पत्थर नहीं बना सकती । ये हर उस चीज को महसूस करेगी जिसको वे देखेंगी, सुनेगी, सुघेंगी, स्पर्श करेगी या उसका स्वाद लेगी । प्यार की अनुभूति सीधे अंतरमन से पनपती है और यह छठी इन्द्री किसी सांसारिक बंधन को नहीं मानती। न ही कोई बंधन इसे रोक सकता है । क्या ऐसे बंधन जो व्यक्ति की भावनाओं को रोके, सही है ?''
माया कुछ क्रुर हो गई और क्रोधित सी बोलती रहीं, ''तुमने मेरे साथ सब कुछ किया । मेरे तन को छुआ, मेरी सांसो की गर्मी को महसूस किया, मेरे तन को चूमा, मेरी प्यार भरी बातों को सुना, मेरे सुंदर तन को देखकर आनंद लिया , यहां तक कि मेरे मन को छू लिया , कौन सी इन्द्री का सदुपयोग नहीं किया ? किन इन्द्रियों को नियंत्रित करने की बातें करते हो ? क्या ये पाप नहीं था ? फिर आगे बढ़ने से क्यो घबराते हो ?''
''नहीं माया । दर्शन मत झाड़ों । आगे नहीं । तुम्हें अपने पति के बच्चों की मां बनना है । उसका विश्वास हासिल करना है ।'' मैंने कहा ।
''प्यार करने से दूषित हो जाऊंगी ? क्या नारी को कोई स्वतंत्रता नही ? मर्द कहीं भी, कुछ भी करें सब ठीक है क्यों कि सब सामाजिक एवं धार्मिक नियम उसी ने बनाए हैं । औरत को तो एक गुलाम बनाकर रखा है । कई ऐसी जनजातियां हैं जो आज भी इस कार्य को बुरा नहीं मानती । फिर क्या विश्वास का ठेका आदमी ने ही ले रखा है । नारी की बातों का विश्वास क्यो नहीं ? प्रकृति ने नारी को कोख देकर मानव जाति को एक बहुत बड़ा वरदान दिया था लेकिन यहीं कोख उसकी दुश्मन बन गई । समाज के ठेकेदारों ने कोख को भी एक अपनी जायदाद बना ली है । इसके लिए स्त्री स्वतंत्रता का गला घोट दिया है । नारी की स्वतंत्रता समाज के विकास के लिए जरुरी है । यह समाज का आधा हिस्सा है । क्या उसकी खुशी और उसकी इन्छा का कोई महत्व नहीं ? आज आदमी ने नारी मन पर, उसकी भावनाओं पर, उसके मिलने जुलने पर, उसकी इन्द्रियों पर प्रतिबंध तो हटा लिए पर प्यार को अभी भी बुरा माना जा रहा है । क्यों? क्या उसे अपनी तरह सुखी रहने का अधिकार नहीं ? कब तक आदमी नारी को तन से एक नारी ही मानता रहेगा, एक व्यक्ति नहीं? नारी क्या पहले एक व्यक्ति नहीं ? क्या तन से नारी को केवल नारी मानकर और उसे कुछ सामाजिक मूल्योँ की दुहाई देकर कैद रखना मानवता का अपमान नहीं है ? आदमी धर्म प्यार, समानता और स्वतंत्रता की बात करता है पर इनकी ऊंचाईयों पर जाने के लिए सामाजिक बंधन खड़े करना क्या सहीं हैं ? प्रेम से भागना कोई धार्मिक मूल्य नहीं । फिर ये मेरा निहायत ही व्यक्तिगत मामला है । इसमें मेरा पति, बच्चे कहां से आ गए । -उसने लम्बा भाषण झाड़ दिया ।
''लेकिन समाज के नियमों को तोड़ना एक नैतिक अपराध है '' –मैंने फिर कहा ।
''किस नैतिकता की बात करते हो ? वो जो तुम्हें मन मारने पर मजबूर करे । वो जो मेरी खुशियों को दर्द में बदला दे । ये मेरा व्यक्तिगत मामला है । इसमें समाज कहां से आ गया । समाज मेरे लिए है । ये मौलिक स्वतंत्रता व्यक्तिगत है जो प्रकृति ने व्यक्ति को दी है । इस पर प्रतिबंध लगाने वाले नियमों को मानना व्यक्ति के विकास को रोकना है । समाज के नियम व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास और उसके हित के लिए होने चाहिए न कि उसके विकास को रोकने या उसके अहित के लिए ।'' माया ने एक चोट खाई नागिन की तरह फफकारते हुए कहा ।
मैं उसके गुस्से के आगे कुछ बोल नहीं पा रहा था । लेकिन फिर भी मेनें कहा -'' माया, मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही सोच रहा हूं । मैं तुमसे प्यार करता हूं इसलिए यह; सब नहीं करना चाहता ।''
उसने मुझे बीच में ही टोकते हुए कहा - ''रहने दो मेरी भलाई की बातें । मैं जानती हूं तुम मुझसे कितना प्यार करते हो । ये ढकोसले अपने पास रखो । मैं जा रही हूं । लेकिन इतना जरुर कहकर जाती हूं कि तुमने मेरा दिल दुखाया है । तुम अपनी जिदंगी में कभी खुश नही रहोगे ''- ऐसा कह कर वह चली गई ।
इसके बाद वह कभी नही मिली । शायद उसकी शादी हो गई और वह अपने पति के साथ किसी अन्य जगह चली गई थी। मेरी भी कुछ महीनेँ बाद सहायक महा प्रबंधक के रुप में पदोन्नति हो गई और मेरा ट्रांसफर चन्नई कर दिया गया ।
चन्नई की ब्राचं माऊंट रोड पर थी । काफी बड़ी ब्रांच थी । करोड़ों की अग्रिम एवं जमा राशि । स्टाफ भी काफी था । मेरी प्राइवेट सेक्ट्ररी एक तेलुगु लड़की थी । उसका पति हैदराबाद प्रशासन में नौकरी करता था । उसका एक लड़का था जो हैदराबाद के किसी स्कूल में नौवीं क्लास में पढता था । क्योकि चन्नई में वह अकेली रहती थी इसलिए वह देर सांय मेरे साथ आफिस में कार्य करती रहती थी । उसका नाम था - छाया । खींचा हुआ बदन, कमर पतली, नयन हिरनी की तरह, चंचल स्वभाव, सांवला बदन, घने काले बाल और चहेरे पर मुस्कराट - ये सब चीेजें किसी के भी मन को आकर्षित करने को बाध्य कर सकती थी । मुझे भी वह अच्छी लगती थी । बहुत हाज़िर जवाब थी वह । कॉफी का इंतजाम करना, डिक्टेशन लेना, टाइपिंग करना और हर कार्य समय पर करना उसे खूब आता था , हमेशा ``सर'' कहते हुए मुस्कराकर बात करती थी । बस समस्या थी तो भाषा की । उसे हिंदी बिल्कुल नहीं आती थी । उससे हर बात इंग्लिश में ही करनी होती थी । कई बार उसने डिनर पर बुलाया । उसका घर साफ सुथरा ओर सजा हुआ था ।
एक दिन मैंने इंग्लिश में पूछा - ''तुम संडे को क्या कर रही हो ?''
उसने इंग्लिश में जवाब दिया - ''कोई विशेष कार्य नहीं ।''
''चलो इस संडे को पांडिचेरी चलते है ''- मेने कहा ।
उसने कुछ सोचते हुए कहा, ''ठीक है''।
और हम कार में पांडिचेरी के लिए रवाना हो गए । मौसम सहुवना था । गाड़ी में ह़िंदी गानों का केसेट बज रहा था । मैंने घर बार की तमाम बातें की । कुछ घंटों बाद पांडिचेरी आ गया । हम मां के आश्रम गए । वहा खाना खाया ओर ``बीच'' की ओर निकल पड़े । पांडिचेरी के समुद्र का किनारा बहुत ही सकरा लेकिन साफ था । मैंने उसे समुद्र में आने के लिए । उसने हाथ बढाया । मैंने उसका हाथ अपने हाथ मे लिया और समुद्र के पानी में उतर गए । मुझे अच्छा लगा । समुद्र की उठती लहरें हमें भीगो रही थी । मैंने मजाक मजाक में अपनी अंजुली में पानी भर कर उस पर डाल दिया । वह खिलखिलाकर हंस पड़ी । वह भीग चुकी थी । हम कार में आए । मैंने उसे तौलिया दिया । वह तौलिये से अपने बाल पोछने लगी । मैं भी अपने हाथ मुंह पोछ कर दूसरे तौलिए से उसके हाथ पोंछने लगा । वह कुछ शर्माई । धीरे से मुस्कराने लगी । मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा - ''छाया, तुम बहुत सुंदर हो । बहुत अच्छी भी हो ।''
यह सुनकर वह मुस्करा दी । उसकी मुसकराट मेरे दिल पर छुर्रियां चला रही थी । हम सांय को वापिस चन्नई आ गए ।
धीरे धीरे हमारी घनिष्टता बढती गई । अब मैं अकेले में उसकी तारीफें करने लगा । उसकी सुदरता पर कुछ कवितांए लिख डाली ।
एक सांय मैं उसके घर बैठा उसे अपनी कविताएं सुना रहा था और वह मंद मंद मुसकरा रही थी । मैंने उससे कहा , ''छाया, तुम्हारी आंखे बहुत सुंदर है । तुम्हारा बदन कमान की तरह खीचा हुआ है । तुम इतनी सुंदर कैसे हो ? ''
उसने धीरे से मुसकराकर बस इतना कहा , ''तुम भी इडली सांबर खाओगे तो सुंदर हो जाओगे ।''
''चलो इस सन्डे गोल्डन-बीच चलते हैं ।''- मैंने सुझाव दिया ।
उसने कहाँ - '' ठीक है ।''
और हम कार में सन्डे को गोल्डन बीच की ओर रवाना हो गए । मैं बिल्कुल उसके करीब बैठ गया । उसका शरीर मेरे शरीर से सटा था । मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा -``छाया, तुम न होती तो मेरा इस चन्नई में दिल कैसे लगता।''
वह चुपचाप मुस्कराती रही । मैंने उसके दोनों गालो पर अपने हाथ रखकर उसकी आंखों में झांकते हुए फिर कहा - ``छाया तुम दिल में समा गई हो । मैं तुमसे दूर नही रह सकता । तुम्हारी हर चीज मुझको भाती है । तुम्हारी तीखी सी आवाज़ मेरे मन के तारों को झन्ना देती है । मैं क्या करु ?''
वह फिर भी मंद मंद मुसकाती रही । मैं उसके प्रेम मे पागल सा हो गया था , मैंने भावुक होकर फिर कहा ,'' तुम्हारी सुंदरता मुझपर जुल्म ढा रही है । तुम बहुत सुंदर हो ।''
ऐसा कह कर मैंने उसके होंठो पर अपनी अंगुलिया फैरनी चाही । लेकिन वह कुछ गम्भीर हो पीछे हट गई । हम बाते करते करते गोल्डन बीच पहुंच गए ।बीच पर हम साथ साथ घूमे । भेलपूरी खाई और चन्नई वापिस आ गए ।
मेरा मन उसे अपनी बाहों मे लेने के लिए मचल रहा था । मैं अगली सांय उसके घर गया । मैंने उसे अपनी बाहों में लेना चाहा ।
वह बीच में ही बोली , ''सर बस, इससे आगे नहीं । इससे आगे केवल मेरे पति का अधिकार है । मैं सती हूं, अपनी पति की हूं। मैं बाकी कुछ नहीं कर सकती । ''
''लेकिन क्यों ? जब मैं तुम्हें देख सकता हूं, छू सकता हूं, बदन की महक ले सकता हूं, तुम्हारी सुंदर आवाज को सुन सकता हूं, तुम्हारे मन में जगह बना सकता हूं तो आगे क्यों नहीं ?'' मैंने एक भूखे व्यक्ति की तरह पूछा जो रोटी होते हुए भी खा नही सकता था ।
''नहीं, यह पाप है । मैं अपने पति को घोखा नहीं दे सकती । मेरा मन भी करता है यह सब करने को । पर मैं बुरी नहीं बनना चाहती । मुझे माफ करो, सर ।'' -उसने कुछ कांपती सी आवाज में कहा ।
मैंने तुरंत कहां , '' लेकिन तुम्हारे पति को पता ही नही चलेगा ।''
''नहीं नहीं, मैं अपनी आत्मा और भगवान को धोखा नहीं दे सकती ।'' उसने जवाब दिया ।''
``लेकिन क्या तुम्हारा पति भी तुम्हारी तरह इतना ईमानदार है ?'' - मैंने कहा ।
``सर, मुझे अपने पति की ईमानदारी से कोई मतलब नहीं । मेरा फ़र्ज है कि मैं उसके साथ ईमानदार रहूं । अपने ईमान की रक्षा करू''- उसने जवाब दिया ।
''लेकिन छाया...., '' -मैं कुछ कहना ही चाहता था कि वह बोलने लगी -
``सर, ये इन्द्रियों का सुख धोखा है , मन को काबू रखना चाहिए । सच्चा आंनद अदंर है - अंतरमन में है । यदि हम इसे साफ रखेंगे तो हमें इन इन्द्रियों से कई गुना ज्यादा सुख मिलेगा । सच्चा आनंद भगवान का नाम लेने में है । ये सुख क्षण भंगुर है । इनकी चाहत कभी मिटती नहीं । प्यार वासना नहीं है । भोग की तृष्णा कभी शांत नहीं होती । यह सब धोखा है । यह मेरी व्यक्तिगत सोच हो सकती है । पर यहीं मुझे खुशी और आनन्दित रखती है ।क्या आप चाहेगें कि आप मेरे दिल को दु:खाए ? आप अच्छे इन्सान है । अच्छे ही बनकर रहे ।''
छाया की बातें सुनकर मेरा प्यार का बुखार उतर गया । मैं अपने घर आ गया । अगले दिन आफिस में जाकर मैंने अपना दिल्ली स्थानांतरण के लिए प्रार्थना पत्र मुख्य कार्यालय को भिजवा दिया । कुछ ही दिनों में मेरा ट्रांसफर दिल्ली हो गया । उसके बाद मैं छाया से कभी नहीं मिल पाया ।
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