सम्बन्ध-ड़ा प्रमोद कुमार
मैंने यह सोचा भी नही था कि मुझे दोबारा चन्दनपुर जाने का मौका मिलेगा । दो साल पहले ही तो स्टेट बैंक ऑफ हिमाचल की शाखा का निरीक्षण करने चन्दनपुर गया था ।
बस तेज रफ्तार से दौड़ी जा रही थी । पहाड़ की हरी-भरी वादियाँ और खिड़की से आती ठंडी-ठंडी हवा तन और मन दोनों को शीतल कर रही थी ।
मुझे दो साल पहले की बातें याद आने लगी । चन्दनपुर हिमाचल की पहाड़ियों में बसा एक छोटा सा गाँव और उसके बीचों बीच बैंक की छोटी सी शाखा । हवा सिंह का वह फौजी सलाम और उसकी मेहमानवाज़ी । चन्दनपुर की छोटी सी पहाड़ी पर बना वह गेस्ट हाऊस, जहाँ मैं ठहरा था । हवा सिंह का वह कच्चा सा मकान जिसमें वह अपनी पत्नी, छोटी बहन और बूढ़ी माँ के साथ रहता था । एक-एक दृश्य मेरे सामने आने लगे ।
वैसे तो हवा सिंह बैंक का एक दरवान था लेकिन शाखा के छोटे मोटे कार्य वही निपटाता था । हवा सिंह के अलावा बैंक में एक मैनेजर और एक क्लर्क भी था । बैंक मैनेजर श्री शर्मा और क्लर्क दीपक दोनों हर रोज चम्बा से आते जाते थे क्योंकि उनका परिवार चम्बा में रहता था । वे दोनों रोज सुबह दस बजे बैंक आते और सायं पाँच बजे वाली बस से चम्बा चले जाते। मैं चन्दनपुर के गेस्ट हाऊस में ही ठहरा था । मैं उन तीन दिनों के प्रवास में हवा सिंह से कुछ ज्यादा ही घुलमिल गया था । हर सायं हम गेस्ट हाऊस के उस दो नम्बर कमरे में घंटों बातें करते थे । हवा सिंह का दिल समुद्र की तरह विशाल और मन गंगा की तरह पवित्र था ।
हवा सिंह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था । जब भी वह चम्बा जाता अपनी पत्नी के लिए चूड़ियाँ, बिन्दी, लिपस्टिक आदि जरूर लाता । पत्नी से ज्यादा उसे अपनी छोटी बहन से प्यार था जिसे उसने अपनी गोद में खिलाया था । बहन की हर ख्वाहिश पूरी करता था । कभी चम्बे से उसके लिए लहंगा-चुन्नी लाता तो कभी नये-नये दूसरे कपड़े । बेशक उसे अपनी पत्नी और बहन से बहुत प्यार था लेकिन उनसे भी ज्यादा वह अपनी माँ से प्यार करता था । सोने से पहले वह अपनी माँ के पैर जरूर दबाता था । मुझे एक दिन की बात अभी भी याद है जब हवा सिंह ने अपनी पत्नी को बहुत धमकाया था । बात बस इतनी सी थी कि उसकी पत्नी ने उसकी माँ को ठंडा खाना परोस दिया था । बस फिर क्या था, हवा सिंह लाल-पीला हो गया और लगा अपनी पत्नी को उल्टा-सीधा बकने, "साली बेवकूफ ! जानती है, इसी औरत ने तेरे पति को पैदा किया है और तू है कि उसे ही सूखी रोटी खिला रही है । तुम्हें शर्म आनी चाहिए । माँ के दाँत नहीं हैं । क्या वह सूखी रोटी चबा पाएगी ? आगे कभी ऐसी गलती की तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा । समझ गई तू ।''
हवा सिंह एक फौजी था । इसलिए अपनी माँ से भी ज्यादा वह अपनी भारत माँ को प्यार करता था । अपने देश के लिए वह अपनी जान छिड़कता था । एक सायं उसने चीन के युद्ध की घटना सुनाई थी । उसने कहा था, "साहिब, चीन की लड़ाई में मैंने भी भाग लिया था। वो दिन भी क्या थे । हम सब में देश के लिए कुछ करने का क्या जज़्वा था । हर फौजी की नशों में देश भत्ति की लहर दौड़ती थी । हर फौजी देश के लिए मर मिटने को तैयार था । हमारी बटालियन बहादुरी से आगे बढ़ रही थी । लेकिन कुछ देर बाद हमारी बटालियन दुश्मनों से घिर गई । एक के बाद एक जवान मारा जाने लगा । लेकिन हम पीछे नही हटे । आगे बढ़ते रहे । मैंने उस दिन अकेले ही बीस चीनियों को भून दिया था । हमारी सारी बटालियन खत्म हो गई । हर जवान मारा गया । मुझे भी एक गोली बाजू में लगी और दूसरी कनपटी से होती हुई बाया कान चीर गई । मैं घायल हो गया और मुझे युद्ध कैदी बना लिया गया । कुछ दिनों बाद लड़ाई बन्द हो गई और मुझे अपने देश भेज दिया गया । साहिब ! मैं बेहोश हो गया था नही तो दो-चार दुश्मनों को और लुढ़का देता । हाथ की चोट तो ठीक हो गई लेकिन एक कान से बहरा हो गया । मुझे फौज से पेंशन देकर मेरी छुट्टी कर दी । साहिब, उस दिन मुझे बहुत दुख हुआ था जब मुझे फौज से निकाला गया था । काश मैं देश के काम आ गया होता । बस फिर मैं गाँव आ गया और बैंक में दरवान बन गया । सच साहिब, मेरा शरीर बेशक यहाँ है लेकिन मेरी आत्मा अभी भी फौज में ही रहती है ।''
हवा सिंह हर रोज़ मेरे लिए खाना अपने घर से ही बनवा कर लाता था । मुझे अभी भी याद है एक रोज़ मैंने खाने की बहुत तारीफ की थी । हवा सिंह ने तुरंत उत्तर दिया था, ``साहिब, मेरी पत्नी, माँ और बहन सब मेरा बहुत ख्याल रखते हैं । वे सब बहुत अच्छे हैं । यह खाना उन्होंने ही बनाया है ।''
``क्या तुम उनसे प्यार करते हो ?'' - मैंने पूछा था ।
और हवा सिंह ने तुरंत जवाब दिया था, "क्या बात करते हो साहिब ! यह जान देश के काम तो न आ सकी । मेरा और है ही कौन घर वालों और बैंक के सिवाय । मैं अपने परिवार और बैंक के प्रति अपना फ़र्ज खूब समझता हूँ और इनके लिए अपनी जान तक दे सकता हूँ ।''
बस चन्दनपुर पहुँच चुकी थी । मैं बस से उतरा और बैंक की और चल दिया । बैंक की शाखा को ढ़ूढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । बैंक में शर्मा जी और दीपक बाबू ने मेरा स्वागत बड़ी गर्मजोशी के साथ किया । मेरे लिए चाय मगँवाई गई । एक औरत चाय लेकर आई और हमारे सामने मेज पर एक-एक प्याला रख गई । मुझे वह औरत जानी पहचानी सी लगी । मैंनें चारों तरफ देखा । हवा सिंह कहीं दिखाई नहीं दिया । मैंनें शर्मा जी से पूछा, ``हवा सिंह नज़र नही आ रहा । क्या वह चम्बा गया है ?''
शर्मा जी ने उदास भाव चेहरे पर लाते हुए कहा, ``प्रदीप जी ! हवा सिंह नही रहे ।''
कुछ देर चुप रहकर फिर कहने लगे, ``पिछले साल तीन डाकू बैंक का खजाना लूटने आये थे । हवा सिंह ने डटकर उनका मुकाबला किया । उसने दो डाकू तो मार गिराये लेकिन तीसरे ने हवा सिंह को गोलियों से भून दिया । चार गोलियाँ उसकी छाती में उतार दी । वह आखिरी साँस तक मुकाबला करता रहा । डाकू डर ऱध् भाग गया । खजाना तो बच गया लेकिन हवा सिंह नही बच सका । उसने फर्ज़ के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी ।''
शर्मा जी अपनी सीट से उठे और मुझे बाहर चलने का इशारा करते हुए कहने लगे, ``हमने यादगार के तौर पर उसकी एक मूर्ति बैंक परिसर में लगाई है।' बाहर आकर हम हवा सिंह की मूर्ति देखने लगे । उसकी मूर्ति देख कर मेरी आँखें नम हो गई । मेंने दुखी मन से हवा सिंह की मूर्ति को सल्यूट किया और सोचने लगा, ``हवा सिंह आखिर तुमने अपने फर्ज़ पर जान दे ही दी । जो इच्छा तुम फौज़ में पूरी न कर सके वह यहाँ गाँव में आकर कर ली । हवा सिंह तुम महान हो ।''
कुछ देर बाद हम अन्दर आ गये । हवा सिंह द्वारा कही हर बात मुझे याद आने लगी । एक बार उसने कहा था, ``साहिब ! मैं इतना पढ़ा-लिखा तो नही हूँ जो धर्म, इंसानियत, ईमानदारी, सच्चाई आदि बड़े-बड़े शब्दों का अर्थ समझ सकूँ । हाँ इतना जरूर जानता हूँ कि देशप्रेम से बड़ा कोई धर्म नही होता । प्यार से बड़ा कोई पुण्य नही होता और फर्ज़ से बड़ा कोई कर्म नही होता । मैं यह भी नही चाहता कि कभी किसी का दिल दुखाऊँ । मुझे लगता है कि किसी का दिल दुखाने से बड़ा कोई पाप नही होता ।''
मैं हवा सिंह के बारे में सोच ही रहा था तभी मुझे उसके परिवार की याद आई । मैंने शर्मा जी से पूछा, ``शर्मा जी ! हवा सिंह की पत्नी और बूढ़ी माँ कैसी हैं ?''
``प्रदीप साहिब ! बैंक ने उसकी पत्नी को फोर्थ क्लास में लगा लिया है । हवा सिंह की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उसकी पत्नी को बैंक में पक्की नौकरी दे दी गई है । कुछ देर पहले जो औरत चाय रख कर गई थी वही तो हवा सिंह की पत्नी थी '' - शर्मा जी ने बताया ।
``और उसकी माँ?'' - मैंने फिर पूछा ।
शर्मा जी ने जवाब दिया, ``उसकी माँ के हाल बुरे हैं । वह अपने मकान में अकेली रहती है । हवा सिंह की पत्नी ने नौकरी मिलने के कुछ दिनों बाद ही दूसरी शादी कर ली । अब वह अपने नये घर में नये पति के साथ रहती है ।''
``उसकी एक छोटी बहन भी थी । उसका क्या हुआ ?'' - मैंने पूछा ।
``एक जवान लड़की कब तक एक कमजोर बुढ़िया के साथ सुरक्षित रहती । कई जवान लड़कों की उस पर निगाहें थी । एक दिन पता चला कि वह किसी लड़के के साथ भाग गई है ।'' - ऐसा कहकर शर्मा जी कुछ देर चुप रहे और फिर दार्शनिक मुद्रा में कहने लगे, ``प्रदीप साहिब ! आपने संत कबीर के दोहे तो पढ़े होंगे । उन्होने अपने दोहों में बहुत ही तीखी लेकिन सच्ची बातें कही हैं । मैं आज आपको उनका वह दोहा सुनाता हूँ जो आज के सांसारिक संबन्धों के यथार्थ को पूरी तरह उजागर करता है । उन्होंने लिखा है -
जब तक जीवे माता रोवे, भैण रोवे दस मासा,
तेरहा दिन तक त्रिया रोवे, फेर करे घर वासा I''
मैं कभी कबीर के दोहे के बारे में सोचूँ और कभी हवा सिंह की माँ के। मैंने शर्मा जी से कहा, ``शर्मा जी ! चलो हवा सिंह की माँ से मिलने चलते हैं ।''
मैं, शर्मा जी और दीपक - तीनों हवा सिंह की माँ को देखने पहुँच गये। हवा सिंह की माँ 80-82 साल की वृद्ध औरत थी । वह एक चारपाई पर पड़ी हवा सिंह का नाम ले-लेकर रो रही थी । अकेली, तन्हां । उसे न तो कोई देखने वाला था और न ही कोई उसकी सुनने वाला । जैसे मौत का इंतजार कर रही हो । मुझसे उसकी यह दशा देखी नही गई । हम वापस बैंक आ गये । मैंने शर्मा जी से पूछा, ``शर्मा जी ! क्या उस बूढ़ी औरत के लिए हम कुछ नही कर सकते ?''
शर्मा जी ने कहा, ``प्रदीप जी ! बैंक के नियमों के अनुसार हम जितना कर सकते थे उतना किया । हवा सिंह की पत्नी को ' कम्पन्सेट ग्राऊण्ड ' पर नौकरी दिला दी । और हम कर भी क्या सकते हैं ?''
तभी बीच में दीपक बाबू कहने लगे, ``साहिब ! हम कभी-कभी बुढ़िया का हाल-चाल पूछ आते हैं । उसे कुछ खाने का सामान भी दे आते हैं । और हम क्या कर सकते हैं ?''
दीपक बाबू कुछ देर चुप हुए और फिर कहने लगे, ``यही दुनियाँ का दस्तूर है । यहाँ सभी सम्बन्ध स्वार्थ पर टिके हैं । इस दुनिया में कोई किसी का नहीं । सभी अपने लिए जीते हैं । कोई भी व्यत्ति किसी अन्य के लिए कुछ करता है तो उसके पीछे भी उसका अपना स्चार्थ छुपा हुआ होता है । यहाँ कोई किसी के मर जाने की वजह से नही रोता । रोता है उन सुख-सुविधाओं के न मिलने के कारण जो मृतक से उसे मिलती थी । माँ बच्चे को इस आशा पर पाल कर बड़ा करती है कि वह बड़ा हो कर उसका सहारा बनेगा । पत्नी को पति के मरने का गम नही होता बल्कि दुख होता है पति से न मिलने वाली सुख-सुविधाओं का जो एक पत्नी को उसके पति से मिलती थी । सारे मानव रिश्तों एवं सम्बन्धों का भुवन सुख-सुविधाओं एवं पैसों के धरातल पर टिका है । यही दुनियाँ है ।''
मैं दीपक की बातें सुनकर चुप हो गया । मुझे मानव-सम्बन्धों का दर्शन समझ नही आया । मैं गेस्ट हाऊस में आकर चारपाई पर लेट गया । सारी रात आँखों में कट गई । कभी मैं हवा सिंह के बारे में सोचता तो कभी दीपक के कहे वाक्य मेरे दिमाग में गूँजते । अगले दिन मैं बैंक गया और अपना काम निपटाया । मैंने शर्मा जी को 500 रूपये देते हुए कहा, ' ये रूपये हवा सिंह के माँ के लिए दे रहा हूँ । कृपया उस बुढ़िया का ख्याल रखना । मैं हर महिने 500 रूपये भिजवाता रहूँगा । आप कृपया उसकी हर जरूरत पूरी करते रहिएगा ।''
मैंने ऐसा कह कर शर्मा जी और दीपक को नमस्कार किया और बस अड्डे के लिए रवाना हो गया । मैंने वापिस जाने के लिए चंडीगढ़ की बस ली और उसमें बैठ गया । बस में बैठते ही मेरे कानों में तेज-तेज आवाजें गूँजने लगी । कभी मुझे दीपक के उपदेश सुनाई पड़ते तो कभी शर्मा जी द्वारा सुनाया संत कबीर का दोहा । मैंने अपने दोनों कानों पर हथेलियाँ रख ली । आवाजों की गूँज तब बंद हो गई ।
मैं मन ही मन सोचने लगा, ``संत कबीर ने अपने दोहे में मानव - संबन्धों के एक महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर किया है जो एक यथार्थवादी समाज सुधारक की दृष्टि में सही हो सकता है । दीपक द्वारा बताई गई बातों में सामाजिक मूल्यों की गहराई और विशालता प्रकट नहीं होती । उसके तुच्छ विचार चार्वाक ऋषि के कुछ सिद्धान्त मात्र लगते हैं । किसी व्यत्ति का महत्व उसकी इस बात में है कि उसने कितना निर्माण किया । मानव - मूल्यों को ऊँचा उठाने में कितना योगदान दिया । मानव रिश्तों एवं संबन्धों का समाज शास्त्र का ज्ञाता तो हवा सिंह ही था जो उम्र भर रिश्तों और मूल्यों को अपने प्यार और विश्वास के धागे में बाँधकर मजबूत करता रहा । उसका मानव संबन्धों का शास्त्र अपने अन्दर विशालता समेटे हुए था । वह जिया भी मानव मूल्यों के लिए और मरा भी उनके लिए । अच्छे मानव मूल्य ही तो एक अच्छे और सुदृढ़ समाज का निर्माण करते है ।''
बस चंडीगढ़ पहुँच चुकी थी । मैं बस से उतरा और हवा सिंह की याद मन में बसाए घर आ गया ।
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Dr Pramod Kumar
Email: drpk1956@gmail.com
drpramod.kumar@yahoo.in
मैंने यह सोचा भी नही था कि मुझे दोबारा चन्दनपुर जाने का मौका मिलेगा । दो साल पहले ही तो स्टेट बैंक ऑफ हिमाचल की शाखा का निरीक्षण करने चन्दनपुर गया था ।
बस तेज रफ्तार से दौड़ी जा रही थी । पहाड़ की हरी-भरी वादियाँ और खिड़की से आती ठंडी-ठंडी हवा तन और मन दोनों को शीतल कर रही थी ।
मुझे दो साल पहले की बातें याद आने लगी । चन्दनपुर हिमाचल की पहाड़ियों में बसा एक छोटा सा गाँव और उसके बीचों बीच बैंक की छोटी सी शाखा । हवा सिंह का वह फौजी सलाम और उसकी मेहमानवाज़ी । चन्दनपुर की छोटी सी पहाड़ी पर बना वह गेस्ट हाऊस, जहाँ मैं ठहरा था । हवा सिंह का वह कच्चा सा मकान जिसमें वह अपनी पत्नी, छोटी बहन और बूढ़ी माँ के साथ रहता था । एक-एक दृश्य मेरे सामने आने लगे ।
वैसे तो हवा सिंह बैंक का एक दरवान था लेकिन शाखा के छोटे मोटे कार्य वही निपटाता था । हवा सिंह के अलावा बैंक में एक मैनेजर और एक क्लर्क भी था । बैंक मैनेजर श्री शर्मा और क्लर्क दीपक दोनों हर रोज चम्बा से आते जाते थे क्योंकि उनका परिवार चम्बा में रहता था । वे दोनों रोज सुबह दस बजे बैंक आते और सायं पाँच बजे वाली बस से चम्बा चले जाते। मैं चन्दनपुर के गेस्ट हाऊस में ही ठहरा था । मैं उन तीन दिनों के प्रवास में हवा सिंह से कुछ ज्यादा ही घुलमिल गया था । हर सायं हम गेस्ट हाऊस के उस दो नम्बर कमरे में घंटों बातें करते थे । हवा सिंह का दिल समुद्र की तरह विशाल और मन गंगा की तरह पवित्र था ।
हवा सिंह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था । जब भी वह चम्बा जाता अपनी पत्नी के लिए चूड़ियाँ, बिन्दी, लिपस्टिक आदि जरूर लाता । पत्नी से ज्यादा उसे अपनी छोटी बहन से प्यार था जिसे उसने अपनी गोद में खिलाया था । बहन की हर ख्वाहिश पूरी करता था । कभी चम्बे से उसके लिए लहंगा-चुन्नी लाता तो कभी नये-नये दूसरे कपड़े । बेशक उसे अपनी पत्नी और बहन से बहुत प्यार था लेकिन उनसे भी ज्यादा वह अपनी माँ से प्यार करता था । सोने से पहले वह अपनी माँ के पैर जरूर दबाता था । मुझे एक दिन की बात अभी भी याद है जब हवा सिंह ने अपनी पत्नी को बहुत धमकाया था । बात बस इतनी सी थी कि उसकी पत्नी ने उसकी माँ को ठंडा खाना परोस दिया था । बस फिर क्या था, हवा सिंह लाल-पीला हो गया और लगा अपनी पत्नी को उल्टा-सीधा बकने, "साली बेवकूफ ! जानती है, इसी औरत ने तेरे पति को पैदा किया है और तू है कि उसे ही सूखी रोटी खिला रही है । तुम्हें शर्म आनी चाहिए । माँ के दाँत नहीं हैं । क्या वह सूखी रोटी चबा पाएगी ? आगे कभी ऐसी गलती की तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा । समझ गई तू ।''
हवा सिंह एक फौजी था । इसलिए अपनी माँ से भी ज्यादा वह अपनी भारत माँ को प्यार करता था । अपने देश के लिए वह अपनी जान छिड़कता था । एक सायं उसने चीन के युद्ध की घटना सुनाई थी । उसने कहा था, "साहिब, चीन की लड़ाई में मैंने भी भाग लिया था। वो दिन भी क्या थे । हम सब में देश के लिए कुछ करने का क्या जज़्वा था । हर फौजी की नशों में देश भत्ति की लहर दौड़ती थी । हर फौजी देश के लिए मर मिटने को तैयार था । हमारी बटालियन बहादुरी से आगे बढ़ रही थी । लेकिन कुछ देर बाद हमारी बटालियन दुश्मनों से घिर गई । एक के बाद एक जवान मारा जाने लगा । लेकिन हम पीछे नही हटे । आगे बढ़ते रहे । मैंने उस दिन अकेले ही बीस चीनियों को भून दिया था । हमारी सारी बटालियन खत्म हो गई । हर जवान मारा गया । मुझे भी एक गोली बाजू में लगी और दूसरी कनपटी से होती हुई बाया कान चीर गई । मैं घायल हो गया और मुझे युद्ध कैदी बना लिया गया । कुछ दिनों बाद लड़ाई बन्द हो गई और मुझे अपने देश भेज दिया गया । साहिब ! मैं बेहोश हो गया था नही तो दो-चार दुश्मनों को और लुढ़का देता । हाथ की चोट तो ठीक हो गई लेकिन एक कान से बहरा हो गया । मुझे फौज से पेंशन देकर मेरी छुट्टी कर दी । साहिब, उस दिन मुझे बहुत दुख हुआ था जब मुझे फौज से निकाला गया था । काश मैं देश के काम आ गया होता । बस फिर मैं गाँव आ गया और बैंक में दरवान बन गया । सच साहिब, मेरा शरीर बेशक यहाँ है लेकिन मेरी आत्मा अभी भी फौज में ही रहती है ।''
हवा सिंह हर रोज़ मेरे लिए खाना अपने घर से ही बनवा कर लाता था । मुझे अभी भी याद है एक रोज़ मैंने खाने की बहुत तारीफ की थी । हवा सिंह ने तुरंत उत्तर दिया था, ``साहिब, मेरी पत्नी, माँ और बहन सब मेरा बहुत ख्याल रखते हैं । वे सब बहुत अच्छे हैं । यह खाना उन्होंने ही बनाया है ।''
``क्या तुम उनसे प्यार करते हो ?'' - मैंने पूछा था ।
और हवा सिंह ने तुरंत जवाब दिया था, "क्या बात करते हो साहिब ! यह जान देश के काम तो न आ सकी । मेरा और है ही कौन घर वालों और बैंक के सिवाय । मैं अपने परिवार और बैंक के प्रति अपना फ़र्ज खूब समझता हूँ और इनके लिए अपनी जान तक दे सकता हूँ ।''
बस चन्दनपुर पहुँच चुकी थी । मैं बस से उतरा और बैंक की और चल दिया । बैंक की शाखा को ढ़ूढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । बैंक में शर्मा जी और दीपक बाबू ने मेरा स्वागत बड़ी गर्मजोशी के साथ किया । मेरे लिए चाय मगँवाई गई । एक औरत चाय लेकर आई और हमारे सामने मेज पर एक-एक प्याला रख गई । मुझे वह औरत जानी पहचानी सी लगी । मैंनें चारों तरफ देखा । हवा सिंह कहीं दिखाई नहीं दिया । मैंनें शर्मा जी से पूछा, ``हवा सिंह नज़र नही आ रहा । क्या वह चम्बा गया है ?''
शर्मा जी ने उदास भाव चेहरे पर लाते हुए कहा, ``प्रदीप जी ! हवा सिंह नही रहे ।''
कुछ देर चुप रहकर फिर कहने लगे, ``पिछले साल तीन डाकू बैंक का खजाना लूटने आये थे । हवा सिंह ने डटकर उनका मुकाबला किया । उसने दो डाकू तो मार गिराये लेकिन तीसरे ने हवा सिंह को गोलियों से भून दिया । चार गोलियाँ उसकी छाती में उतार दी । वह आखिरी साँस तक मुकाबला करता रहा । डाकू डर ऱध् भाग गया । खजाना तो बच गया लेकिन हवा सिंह नही बच सका । उसने फर्ज़ के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी ।''
शर्मा जी अपनी सीट से उठे और मुझे बाहर चलने का इशारा करते हुए कहने लगे, ``हमने यादगार के तौर पर उसकी एक मूर्ति बैंक परिसर में लगाई है।' बाहर आकर हम हवा सिंह की मूर्ति देखने लगे । उसकी मूर्ति देख कर मेरी आँखें नम हो गई । मेंने दुखी मन से हवा सिंह की मूर्ति को सल्यूट किया और सोचने लगा, ``हवा सिंह आखिर तुमने अपने फर्ज़ पर जान दे ही दी । जो इच्छा तुम फौज़ में पूरी न कर सके वह यहाँ गाँव में आकर कर ली । हवा सिंह तुम महान हो ।''
कुछ देर बाद हम अन्दर आ गये । हवा सिंह द्वारा कही हर बात मुझे याद आने लगी । एक बार उसने कहा था, ``साहिब ! मैं इतना पढ़ा-लिखा तो नही हूँ जो धर्म, इंसानियत, ईमानदारी, सच्चाई आदि बड़े-बड़े शब्दों का अर्थ समझ सकूँ । हाँ इतना जरूर जानता हूँ कि देशप्रेम से बड़ा कोई धर्म नही होता । प्यार से बड़ा कोई पुण्य नही होता और फर्ज़ से बड़ा कोई कर्म नही होता । मैं यह भी नही चाहता कि कभी किसी का दिल दुखाऊँ । मुझे लगता है कि किसी का दिल दुखाने से बड़ा कोई पाप नही होता ।''
मैं हवा सिंह के बारे में सोच ही रहा था तभी मुझे उसके परिवार की याद आई । मैंने शर्मा जी से पूछा, ``शर्मा जी ! हवा सिंह की पत्नी और बूढ़ी माँ कैसी हैं ?''
``प्रदीप साहिब ! बैंक ने उसकी पत्नी को फोर्थ क्लास में लगा लिया है । हवा सिंह की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उसकी पत्नी को बैंक में पक्की नौकरी दे दी गई है । कुछ देर पहले जो औरत चाय रख कर गई थी वही तो हवा सिंह की पत्नी थी '' - शर्मा जी ने बताया ।
``और उसकी माँ?'' - मैंने फिर पूछा ।
शर्मा जी ने जवाब दिया, ``उसकी माँ के हाल बुरे हैं । वह अपने मकान में अकेली रहती है । हवा सिंह की पत्नी ने नौकरी मिलने के कुछ दिनों बाद ही दूसरी शादी कर ली । अब वह अपने नये घर में नये पति के साथ रहती है ।''
``उसकी एक छोटी बहन भी थी । उसका क्या हुआ ?'' - मैंने पूछा ।
``एक जवान लड़की कब तक एक कमजोर बुढ़िया के साथ सुरक्षित रहती । कई जवान लड़कों की उस पर निगाहें थी । एक दिन पता चला कि वह किसी लड़के के साथ भाग गई है ।'' - ऐसा कहकर शर्मा जी कुछ देर चुप रहे और फिर दार्शनिक मुद्रा में कहने लगे, ``प्रदीप साहिब ! आपने संत कबीर के दोहे तो पढ़े होंगे । उन्होने अपने दोहों में बहुत ही तीखी लेकिन सच्ची बातें कही हैं । मैं आज आपको उनका वह दोहा सुनाता हूँ जो आज के सांसारिक संबन्धों के यथार्थ को पूरी तरह उजागर करता है । उन्होंने लिखा है -
जब तक जीवे माता रोवे, भैण रोवे दस मासा,
तेरहा दिन तक त्रिया रोवे, फेर करे घर वासा I''
मैं कभी कबीर के दोहे के बारे में सोचूँ और कभी हवा सिंह की माँ के। मैंने शर्मा जी से कहा, ``शर्मा जी ! चलो हवा सिंह की माँ से मिलने चलते हैं ।''
मैं, शर्मा जी और दीपक - तीनों हवा सिंह की माँ को देखने पहुँच गये। हवा सिंह की माँ 80-82 साल की वृद्ध औरत थी । वह एक चारपाई पर पड़ी हवा सिंह का नाम ले-लेकर रो रही थी । अकेली, तन्हां । उसे न तो कोई देखने वाला था और न ही कोई उसकी सुनने वाला । जैसे मौत का इंतजार कर रही हो । मुझसे उसकी यह दशा देखी नही गई । हम वापस बैंक आ गये । मैंने शर्मा जी से पूछा, ``शर्मा जी ! क्या उस बूढ़ी औरत के लिए हम कुछ नही कर सकते ?''
शर्मा जी ने कहा, ``प्रदीप जी ! बैंक के नियमों के अनुसार हम जितना कर सकते थे उतना किया । हवा सिंह की पत्नी को ' कम्पन्सेट ग्राऊण्ड ' पर नौकरी दिला दी । और हम कर भी क्या सकते हैं ?''
तभी बीच में दीपक बाबू कहने लगे, ``साहिब ! हम कभी-कभी बुढ़िया का हाल-चाल पूछ आते हैं । उसे कुछ खाने का सामान भी दे आते हैं । और हम क्या कर सकते हैं ?''
दीपक बाबू कुछ देर चुप हुए और फिर कहने लगे, ``यही दुनियाँ का दस्तूर है । यहाँ सभी सम्बन्ध स्वार्थ पर टिके हैं । इस दुनिया में कोई किसी का नहीं । सभी अपने लिए जीते हैं । कोई भी व्यत्ति किसी अन्य के लिए कुछ करता है तो उसके पीछे भी उसका अपना स्चार्थ छुपा हुआ होता है । यहाँ कोई किसी के मर जाने की वजह से नही रोता । रोता है उन सुख-सुविधाओं के न मिलने के कारण जो मृतक से उसे मिलती थी । माँ बच्चे को इस आशा पर पाल कर बड़ा करती है कि वह बड़ा हो कर उसका सहारा बनेगा । पत्नी को पति के मरने का गम नही होता बल्कि दुख होता है पति से न मिलने वाली सुख-सुविधाओं का जो एक पत्नी को उसके पति से मिलती थी । सारे मानव रिश्तों एवं सम्बन्धों का भुवन सुख-सुविधाओं एवं पैसों के धरातल पर टिका है । यही दुनियाँ है ।''
मैं दीपक की बातें सुनकर चुप हो गया । मुझे मानव-सम्बन्धों का दर्शन समझ नही आया । मैं गेस्ट हाऊस में आकर चारपाई पर लेट गया । सारी रात आँखों में कट गई । कभी मैं हवा सिंह के बारे में सोचता तो कभी दीपक के कहे वाक्य मेरे दिमाग में गूँजते । अगले दिन मैं बैंक गया और अपना काम निपटाया । मैंने शर्मा जी को 500 रूपये देते हुए कहा, ' ये रूपये हवा सिंह के माँ के लिए दे रहा हूँ । कृपया उस बुढ़िया का ख्याल रखना । मैं हर महिने 500 रूपये भिजवाता रहूँगा । आप कृपया उसकी हर जरूरत पूरी करते रहिएगा ।''
मैंने ऐसा कह कर शर्मा जी और दीपक को नमस्कार किया और बस अड्डे के लिए रवाना हो गया । मैंने वापिस जाने के लिए चंडीगढ़ की बस ली और उसमें बैठ गया । बस में बैठते ही मेरे कानों में तेज-तेज आवाजें गूँजने लगी । कभी मुझे दीपक के उपदेश सुनाई पड़ते तो कभी शर्मा जी द्वारा सुनाया संत कबीर का दोहा । मैंने अपने दोनों कानों पर हथेलियाँ रख ली । आवाजों की गूँज तब बंद हो गई ।
मैं मन ही मन सोचने लगा, ``संत कबीर ने अपने दोहे में मानव - संबन्धों के एक महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर किया है जो एक यथार्थवादी समाज सुधारक की दृष्टि में सही हो सकता है । दीपक द्वारा बताई गई बातों में सामाजिक मूल्यों की गहराई और विशालता प्रकट नहीं होती । उसके तुच्छ विचार चार्वाक ऋषि के कुछ सिद्धान्त मात्र लगते हैं । किसी व्यत्ति का महत्व उसकी इस बात में है कि उसने कितना निर्माण किया । मानव - मूल्यों को ऊँचा उठाने में कितना योगदान दिया । मानव रिश्तों एवं संबन्धों का समाज शास्त्र का ज्ञाता तो हवा सिंह ही था जो उम्र भर रिश्तों और मूल्यों को अपने प्यार और विश्वास के धागे में बाँधकर मजबूत करता रहा । उसका मानव संबन्धों का शास्त्र अपने अन्दर विशालता समेटे हुए था । वह जिया भी मानव मूल्यों के लिए और मरा भी उनके लिए । अच्छे मानव मूल्य ही तो एक अच्छे और सुदृढ़ समाज का निर्माण करते है ।''
बस चंडीगढ़ पहुँच चुकी थी । मैं बस से उतरा और हवा सिंह की याद मन में बसाए घर आ गया ।
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Dr Pramod Kumar
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