Wednesday, March 30, 2011

सम्बन्ध-ड़ा प्रमोद कुमार

सम्बन्ध-ड़ा प्रमोद कुमार






मैंने यह सोचा भी नही था कि मुझे दोबारा चन्दनपुर जाने का मौका मिलेगा । दो साल पहले ही तो स्टेट बैंक ऑफ हिमाचल की शाखा का निरीक्षण करने चन्दनपुर गया था ।

बस तेज रफ्तार से दौड़ी जा रही थी । पहाड़ की हरी-भरी वादियाँ और खिड़की से आती ठंडी-ठंडी हवा तन और मन दोनों को शीतल कर रही थी ।
मुझे दो साल पहले की बातें याद आने लगी । चन्दनपुर हिमाचल की पहाड़ियों में बसा एक छोटा सा गाँव और उसके बीचों बीच बैंक की छोटी सी शाखा । हवा सिंह का वह फौजी सलाम और उसकी मेहमानवाज़ी । चन्दनपुर की छोटी सी पहाड़ी पर बना वह गेस्ट हाऊस, जहाँ मैं ठहरा था । हवा सिंह का वह कच्चा सा मकान जिसमें वह अपनी पत्नी, छोटी बहन और बूढ़ी माँ के साथ रहता था । एक-एक दृश्य मेरे सामने आने लगे ।
वैसे तो हवा सिंह बैंक का एक दरवान था लेकिन शाखा के छोटे मोटे कार्य वही निपटाता था । हवा सिंह के अलावा बैंक में एक मैनेजर और एक क्लर्क भी था । बैंक मैनेजर श्री शर्मा और क्लर्क दीपक दोनों हर रोज चम्बा से आते जाते थे क्योंकि उनका परिवार चम्बा में रहता था । वे दोनों रोज सुबह दस बजे बैंक आते और सायं पाँच बजे वाली बस से चम्बा चले जाते। मैं चन्दनपुर के गेस्ट हाऊस में ही ठहरा था । मैं उन तीन दिनों के प्रवास में हवा सिंह से कुछ ज्यादा ही घुलमिल गया था । हर सायं हम गेस्ट हाऊस के उस दो नम्बर कमरे में घंटों बातें करते थे । हवा सिंह का दिल समुद्र की तरह विशाल और मन गंगा की तरह पवित्र था ।
हवा सिंह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था । जब भी वह चम्बा जाता अपनी पत्नी के लिए चूड़ियाँ, बिन्दी, लिपस्टिक आदि जरूर लाता । पत्नी से ज्यादा उसे अपनी छोटी बहन से प्यार था जिसे उसने अपनी गोद में खिलाया था । बहन की हर ख्वाहिश पूरी करता था । कभी चम्बे से उसके लिए लहंगा-चुन्नी लाता तो कभी नये-नये दूसरे कपड़े । बेशक उसे अपनी पत्नी और बहन से बहुत प्यार था लेकिन उनसे भी ज्यादा वह अपनी माँ से प्यार करता था । सोने से पहले वह अपनी माँ के पैर जरूर दबाता था । मुझे एक दिन की बात अभी भी याद है जब हवा सिंह ने अपनी पत्नी को बहुत धमकाया था । बात बस इतनी सी थी कि उसकी पत्नी ने उसकी माँ को ठंडा खाना परोस दिया था । बस फिर क्या था, हवा सिंह लाल-पीला हो गया और लगा अपनी पत्नी को उल्टा-सीधा बकने, "साली बेवकूफ ! जानती है, इसी औरत ने तेरे पति को पैदा किया है और तू है कि उसे ही सूखी रोटी खिला रही है । तुम्हें शर्म आनी चाहिए । माँ के दाँत नहीं हैं । क्या वह सूखी रोटी चबा पाएगी ? आगे कभी ऐसी गलती की तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा । समझ गई तू ।''
हवा सिंह एक फौजी था । इसलिए अपनी माँ से भी ज्यादा वह अपनी भारत माँ को प्यार करता था । अपने देश के लिए वह अपनी जान छिड़कता था । एक सायं उसने चीन के युद्ध की घटना सुनाई थी । उसने कहा था, "साहिब, चीन की लड़ाई में मैंने भी भाग लिया था। वो दिन भी क्या थे । हम सब में देश के लिए कुछ करने का क्या जज़्वा था । हर फौजी की नशों में देश भत्ति की लहर दौड़ती थी । हर फौजी देश के लिए मर मिटने को तैयार था । हमारी बटालियन बहादुरी से आगे बढ़ रही थी । लेकिन कुछ देर बाद हमारी बटालियन दुश्मनों से घिर गई । एक के बाद एक जवान मारा जाने लगा । लेकिन हम पीछे नही हटे । आगे बढ़ते रहे । मैंने उस दिन अकेले ही बीस चीनियों को भून दिया था । हमारी सारी बटालियन खत्म हो गई । हर जवान मारा गया । मुझे भी एक गोली बाजू में लगी और दूसरी कनपटी से होती हुई बाया कान चीर गई । मैं घायल हो गया और मुझे युद्ध कैदी बना लिया गया । कुछ दिनों बाद लड़ाई बन्द हो गई और मुझे अपने देश भेज दिया गया । साहिब ! मैं बेहोश हो गया था नही तो दो-चार दुश्मनों को और लुढ़का देता । हाथ की चोट तो ठीक हो गई लेकिन एक कान से बहरा हो गया । मुझे फौज से पेंशन देकर मेरी छुट्टी कर दी । साहिब, उस दिन मुझे बहुत दुख हुआ था जब मुझे फौज से निकाला गया था । काश मैं देश के काम आ गया होता । बस फिर मैं गाँव आ गया और बैंक में दरवान बन गया । सच साहिब, मेरा शरीर बेशक यहाँ है लेकिन मेरी आत्मा अभी भी फौज में ही रहती है ।''
हवा सिंह हर रोज़ मेरे लिए खाना अपने घर से ही बनवा कर लाता था । मुझे अभी भी याद है एक रोज़ मैंने खाने की बहुत तारीफ की थी । हवा सिंह ने तुरंत उत्तर दिया था, ``साहिब, मेरी पत्नी, माँ और बहन सब मेरा बहुत ख्याल रखते हैं । वे सब बहुत अच्छे हैं । यह खाना उन्होंने ही बनाया है ।''
``क्या तुम उनसे प्यार करते हो ?'' - मैंने पूछा था ।
और हवा सिंह ने तुरंत जवाब दिया था, "क्या बात करते हो साहिब ! यह जान देश के काम तो न आ सकी । मेरा और है ही कौन घर वालों और बैंक के सिवाय । मैं अपने परिवार और बैंक के प्रति अपना फ़र्ज खूब समझता हूँ और इनके लिए अपनी जान तक दे सकता हूँ ।''
बस चन्दनपुर पहुँच चुकी थी । मैं बस से उतरा और बैंक की और चल दिया । बैंक की शाखा को ढ़ूढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । बैंक में शर्मा जी और दीपक बाबू ने मेरा स्वागत बड़ी गर्मजोशी के साथ किया । मेरे लिए चाय मगँवाई गई । एक औरत चाय लेकर आई और हमारे सामने मेज पर एक-एक प्याला रख गई । मुझे वह औरत जानी पहचानी सी लगी । मैंनें चारों तरफ देखा । हवा सिंह कहीं दिखाई नहीं दिया । मैंनें शर्मा जी से पूछा, ``हवा सिंह नज़र नही आ रहा । क्या वह चम्बा गया है ?''
शर्मा जी ने उदास भाव चेहरे पर लाते हुए कहा, ``प्रदीप जी ! हवा सिंह नही रहे ।''
कुछ देर चुप रहकर फिर कहने लगे, ``पिछले साल तीन डाकू बैंक का खजाना लूटने आये थे । हवा सिंह ने डटकर उनका मुकाबला किया । उसने दो डाकू तो मार गिराये लेकिन तीसरे ने हवा सिंह को गोलियों से भून दिया । चार गोलियाँ उसकी छाती में उतार दी । वह आखिरी साँस तक मुकाबला करता रहा । डाकू डर ऱध् भाग गया । खजाना तो बच गया लेकिन हवा सिंह नही बच सका । उसने फर्ज़ के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी ।''
शर्मा जी अपनी सीट से उठे और मुझे बाहर चलने का इशारा करते हुए कहने लगे, ``हमने यादगार के तौर पर उसकी एक मूर्ति बैंक परिसर में लगाई है।' बाहर आकर हम हवा सिंह की मूर्ति देखने लगे । उसकी मूर्ति देख कर मेरी आँखें नम हो गई । मेंने दुखी मन से हवा सिंह की मूर्ति को सल्यूट किया और सोचने लगा, ``हवा सिंह आखिर तुमने अपने फर्ज़ पर जान दे ही दी । जो इच्छा तुम फौज़ में पूरी न कर सके वह यहाँ गाँव में आकर कर ली । हवा सिंह तुम महान हो ।''
कुछ देर बाद हम अन्दर आ गये । हवा सिंह द्वारा कही हर बात मुझे याद आने लगी । एक बार उसने कहा था, ``साहिब ! मैं इतना पढ़ा-लिखा तो नही हूँ जो धर्म, इंसानियत, ईमानदारी, सच्चाई आदि बड़े-बड़े शब्दों का अर्थ समझ सकूँ । हाँ इतना जरूर जानता हूँ कि देशप्रेम से बड़ा कोई धर्म नही होता । प्यार से बड़ा कोई पुण्य नही होता और फर्ज़ से बड़ा कोई कर्म नही होता । मैं यह भी नही चाहता कि कभी किसी का दिल दुखाऊँ । मुझे लगता है कि किसी का दिल दुखाने से बड़ा कोई पाप नही होता ।''
मैं हवा सिंह के बारे में सोच ही रहा था तभी मुझे उसके परिवार की याद आई । मैंने शर्मा जी से पूछा, ``शर्मा जी ! हवा सिंह की पत्नी और बूढ़ी माँ कैसी हैं ?''
``प्रदीप साहिब ! बैंक ने उसकी पत्नी को फोर्थ क्लास में लगा लिया है । हवा सिंह की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उसकी पत्नी को बैंक में पक्की नौकरी दे दी गई है । कुछ देर पहले जो औरत चाय रख कर गई थी वही तो हवा सिंह की पत्नी थी '' - शर्मा जी ने बताया ।
``और उसकी माँ?'' - मैंने फिर पूछा ।
शर्मा जी ने जवाब दिया, ``उसकी माँ के हाल बुरे हैं । वह अपने मकान में अकेली रहती है । हवा सिंह की पत्नी ने नौकरी मिलने के कुछ दिनों बाद ही दूसरी शादी कर ली । अब वह अपने नये घर में नये पति के साथ रहती है ।''
``उसकी एक छोटी बहन भी थी । उसका क्या हुआ ?'' - मैंने पूछा ।
``एक जवान लड़की कब तक एक कमजोर बुढ़िया के साथ सुरक्षित रहती । कई जवान लड़कों की उस पर निगाहें थी । एक दिन पता चला कि वह किसी लड़के के साथ भाग गई है ।'' - ऐसा कहकर शर्मा जी कुछ देर चुप रहे और फिर दार्शनिक मुद्रा में कहने लगे, ``प्रदीप साहिब ! आपने संत कबीर के दोहे तो पढ़े होंगे । उन्होने अपने दोहों में बहुत ही तीखी लेकिन सच्ची बातें कही हैं । मैं आज आपको उनका वह दोहा सुनाता हूँ जो आज के सांसारिक संबन्धों के यथार्थ को पूरी तरह उजागर करता है । उन्होंने लिखा है -
जब तक जीवे माता रोवे, भैण रोवे दस मासा,

तेरहा दिन तक त्रिया रोवे, फेर करे घर वासा I''
मैं कभी कबीर के दोहे के बारे में सोचूँ और कभी हवा सिंह की माँ के। मैंने शर्मा जी से कहा, ``शर्मा जी ! चलो हवा सिंह की माँ से मिलने चलते हैं ।''
मैं, शर्मा जी और दीपक - तीनों हवा सिंह की माँ को देखने पहुँच गये। हवा सिंह की माँ 80-82 साल की वृद्ध औरत थी । वह एक चारपाई पर पड़ी हवा सिंह का नाम ले-लेकर रो रही थी । अकेली, तन्हां । उसे न तो कोई देखने वाला था और न ही कोई उसकी सुनने वाला । जैसे मौत का इंतजार कर रही हो । मुझसे उसकी यह दशा देखी नही गई । हम वापस बैंक आ गये । मैंने शर्मा जी से पूछा, ``शर्मा जी ! क्या उस बूढ़ी औरत के लिए हम कुछ नही कर सकते ?''
शर्मा जी ने कहा, ``प्रदीप जी ! बैंक के नियमों के अनुसार हम जितना कर सकते थे उतना किया । हवा सिंह की पत्नी को ' कम्पन्सेट ग्राऊण्ड ' पर नौकरी दिला दी । और हम कर भी क्या सकते हैं ?''
तभी बीच में दीपक बाबू कहने लगे, ``साहिब ! हम कभी-कभी बुढ़िया का हाल-चाल पूछ आते हैं । उसे कुछ खाने का सामान भी दे आते हैं । और हम क्या कर सकते हैं ?''
दीपक बाबू कुछ देर चुप हुए और फिर कहने लगे, ``यही दुनियाँ का दस्तूर है । यहाँ सभी सम्बन्ध स्वार्थ पर टिके हैं । इस दुनिया में कोई किसी का नहीं । सभी अपने लिए जीते हैं । कोई भी व्यत्ति किसी अन्य के लिए कुछ करता है तो उसके पीछे भी उसका अपना स्चार्थ छुपा हुआ होता है । यहाँ कोई किसी के मर जाने की वजह से नही रोता । रोता है उन सुख-सुविधाओं के न मिलने के कारण जो मृतक से उसे मिलती थी । माँ बच्चे को इस आशा पर पाल कर बड़ा करती है कि वह बड़ा हो कर उसका सहारा बनेगा । पत्नी को पति के मरने का गम नही होता बल्कि दुख होता है पति से न मिलने वाली सुख-सुविधाओं का जो एक पत्नी को उसके पति से मिलती थी । सारे मानव रिश्तों एवं सम्बन्धों का भुवन सुख-सुविधाओं एवं पैसों के धरातल पर टिका है । यही दुनियाँ है ।''
मैं दीपक की बातें सुनकर चुप हो गया । मुझे मानव-सम्बन्धों का दर्शन समझ नही आया । मैं गेस्ट हाऊस में आकर चारपाई पर लेट गया । सारी रात आँखों में कट गई । कभी मैं हवा सिंह के बारे में सोचता तो कभी दीपक के कहे वाक्य मेरे दिमाग में गूँजते । अगले दिन मैं बैंक गया और अपना काम निपटाया । मैंने शर्मा जी को 500 रूपये देते हुए कहा, ' ये रूपये हवा सिंह के माँ के लिए दे रहा हूँ । कृपया उस बुढ़िया का ख्याल रखना । मैं हर महिने 500 रूपये भिजवाता रहूँगा । आप कृपया उसकी हर जरूरत पूरी करते रहिएगा ।''
मैंने ऐसा कह कर शर्मा जी और दीपक को नमस्कार किया और बस अड्डे के लिए रवाना हो गया । मैंने वापिस जाने के लिए चंडीगढ़ की बस ली और उसमें बैठ गया । बस में बैठते ही मेरे कानों में तेज-तेज आवाजें गूँजने लगी । कभी मुझे दीपक के उपदेश सुनाई पड़ते तो कभी शर्मा जी द्वारा सुनाया संत कबीर का दोहा । मैंने अपने दोनों कानों पर हथेलियाँ रख ली । आवाजों की गूँज तब बंद हो गई ।
मैं मन ही मन सोचने लगा, ``संत कबीर ने अपने दोहे में मानव - संबन्धों के एक महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर किया है जो एक यथार्थवादी समाज सुधारक की दृष्टि में सही हो सकता है । दीपक द्वारा बताई गई बातों में सामाजिक मूल्यों की गहराई और विशालता प्रकट नहीं होती । उसके तुच्छ विचार चार्वाक ऋषि के कुछ सिद्धान्त मात्र लगते हैं । किसी व्यत्ति का महत्व उसकी इस बात में है कि उसने कितना निर्माण किया । मानव - मूल्यों को ऊँचा उठाने में कितना योगदान दिया । मानव रिश्तों एवं संबन्धों का समाज शास्त्र का ज्ञाता तो हवा सिंह ही था जो उम्र भर रिश्तों और मूल्यों को अपने प्यार और विश्वास के धागे में बाँधकर मजबूत करता रहा । उसका मानव संबन्धों का शास्त्र अपने अन्दर विशालता समेटे हुए था । वह जिया भी मानव मूल्यों के लिए और मरा भी उनके लिए । अच्छे मानव मूल्य ही तो एक अच्छे और सुदृढ़ समाज का निर्माण करते है ।''
बस चंडीगढ़ पहुँच चुकी थी । मैं बस से उतरा और हवा सिंह की याद मन में बसाए घर आ गया ।

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Dr Pramod Kumar

Email: drpk1956@gmail.com

drpramod.kumar@yahoo.in

मंडी-ड़ा प्रमोद कुमार

मंडी-ड़ा प्रमोद कुमार




मंडी हिमांचल प्रदेश की वादियों में बसा एक छोटा सा कस्बा । चारों ओर ऊँची - ऊँची पहाड़ियाँ और उन पर लहराते हरे भरे पेड़ । प्रकृति का यह मोहक दृश्य बहुत ही लुभावना लग रहा था । वैसे तो मंडी हिमांचल प्रदेश का एक मशहूर जिला है लेकिन इसकी आबादी इतनी नहीं है जितनी की एक मैदानी कस्बे की होती है । एक छोटा सा बस अड्डा और उसके पास से निकलती हुई ढलानदार छोटी सड़क के दोनों ओर तरह तरह के समान से सजी दुकानें । यही मंडी का मुख्य बाजार कहलाता है ।



अजीत मंडी पहली बार आया था । उसे अपने आफिस की ओर से जिला न्यायालय में एक एफीडेविट देना था । बस सुबह 7 बजे पहुची । वह एक होटल में गया, स्नान कर तैयार हुआ औठर कोर्ट के लिए निकल पड़ा । कोर्ट पास ही था इसलिए वह पैदल ही कोर्ट पहुच गया । केस की सुनवाई लगभग 12.00 बजे दोपहर में हुई और एक बजे तक वह कोर्ट के कार्य से निश्चित हो गया । वापिस होटल आया, खाना खाया और कुछ देर आराम करने लगा ।



सायं चार बजे वह बाजार घुमने निकल पड़ा । पहाड़ें में दिन जल्दी छिप जाता है इसलिए मार्केट भी देर रात तक खुली नहीं रहती । बाजार घूमते घूमते सायं के सात बज गए । उसने एक रेस्टोरेन्ट में खाना खाया और होटल वापिस आ गया । वह चाहता था रात्रि बस सेवा से दिल्ली पहुच जाए । इसलिए उसने होटल से "च्चटक आउट " किया और सीधे बस अड्डे की ओर चल दिया ।



दिल्ली की बस रात्रि दस बजे चलती थी । उसने टिकट ली और बस मे बैठ गया । बस ठीक दस बजे रवाना हुई । मंडी से दिल्ली तक की दूरी लगभग 12-13 घंटे की थी । अजीत को खिड़की के पास वाली सीट मिल गई । मई के महीने में खिड़की से आती पहाड़ी ठंडी हवाओं ने ऐसी लोरी सुनाई कि उसे नींद आ गई । नींद जाकर सुबह 6 बजे टूटी जब बस कुरूक्षेत्र पहुची । ड्राइवर ने कहॉ - " यहॉ बस 15 मिनट रूकेगी । जिस किसी को चाय पानी पीना हो पी ले । "



सभी लोग चाय पीने के लिए नीचे उतरने लगे । अजीत के पास वाली सीट पर एक लड़का बैठा था । अजीत ने उससे कहा, "चलो चाय पीते हैं ।"

अजीत एवं वह लड़का चाय पीने नीचे उतरे । लड़का 26-27 साल का था । सफेद कमीज़ एवं भूरे रंग की पैंट पहने था । लड़का चुपचाप खड़ा था । अजीत ने दो चाय का आदेश दिया और चुप्पी तोड़ते हुए लड़के से पूछा - तुम्हारा नाम क्या है ?



"मेरा नाम राम सिंह है"- लड़के ने कुछ सोचते हुए बताया । लड़का चुपचाप चाय पीने लगा ।



अजीत ने फिर पूछा-" कहाँ तक जा रहे हो । "



"दिल्ली तक "- लड़के ने धीरे से कहा ।



" मैं भी दिल्ली जा रहा हू "- अजीत ने तुरंत कहाँ । अजीत की बात सुनकर उसने कुछ नहीं कहा, चुपचाप चाय पीता रहा । शायद वह ज्यादा घुलना-मिलना नहीं चाहता था इसलिए अजीत ने भी आगे बात नहीं की ।



तभी कन्डक्टर ने बस में बैठने के लिए आवाज़ लगाई और हम सब अपनी अपनी सीटों पर आकर बैठ गए। अजीत के पास वाली सीट पर रामसिंह गुमसुम सा बैठा था । बस ने धीरे- धीरे तेज रफ़तार पकड़ ली । अजीत बातूनी था । कब तक चुप रहता ।



"क्या आप अपने आफिस के कार्य के लिए मंडी गए थे । " अजीत ने चुप्पी तोड़ते हुए रामसिंह से पूछा । रामसिंह चुपचाप रहा ; न अजीत की ओर देखा और न ही कोई जवाब दिया ।



अजीत ने फिर गर्दन रामसिंह की ओर घुमाते हुए पूछा - "आप क्या काम करते हैं ?"



पहले तो रामसिंह कुछ सकपकाया । फिर सोचते हुए बोला " मेरा मंडी में फलों का बाग़ है । हर साल बाग़ ठेके पर देता हू और पैसा लेकर दिल्ली वापिस आ जाता हू ।"



" कितना पैसा मिल जाता है" - अजीत ने उसकी ओर देखते हुए फिर पूछा ।



रामसिंह कुछ देर चुप रहा फिर बिना गर्दन अजीत की ओर घुमाए कहने लगा, - "यही कोई 50-60 हजार रूपए ।" और ऐसा कहकर उस नवयुवक ने आँखें बंद कर ली । चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगा । सड़क के दोनों तरफ हरे भरे पेड़ और पेड़ों के बीच काली सड़क पर दौड़ती बस - एक सुखद आनंद का अहसास करा रही थी । अजीत ने सीट से उठकर पीछे देखा; कुछ यात्री सो रहे थे और अन्य या तो कुछ पढ़ रहे थे या फिर आपस में बातें कर रहे थे ।



बस दिल्ली बार्डर पार कर ही रही थी तभी कुछ पुलिस वालों ने बस को रोक दिया । पुलिस वाले बस में चढ़ने लगे । उसी समय मेरे साथ वाली सीट पर बैठा रामसिंह सीट से उठते हुए कहने लगा-" भाई साहब, मैं ज़रा पेशाब करके आता हू । मेरा ब्रीफकेस यह ऊपर है । इसमें पैसे हैं। कृपाया ध्यान रखिएगा । "सिपाही दिल्ली पुलिस के थे । वे सब यात्रियों का सामना चेक करने लगे । हर एक सामान की तरफ इशारा करके पूछने लगे-" यह सूटकेस किसका है ? यह बैग किसका है ? "



देखते देखते सिपाही अजीत की सीट के पास पहुच गए । "यह अटैची किसकी है ।" एक सिपाही ने पूछा ।



" यह मेरी है । "- ऐसा कहते हुए अजीत की अटैची देखकर सिपाही रामसिंह के ब्रीफकेस की ओर इशारा करते हुए पूछने लगा - " यह किसका है ।"



अजीत बाहर रामसिंह को देखने लगा । सिपाही ने अजीत से पूछा - "क्या यह ब्रीफकेस आपका है ?"



"नहीं, यह मेरा नहीं है । यह एक लड़के का है जो अभी पेशाब करने नीचे गया है; आता ही होगा ।"- मैंने कहा ।



सिपाही ब्रीफकेस को खोलने की कोशिश करने लगा । लेकिन वह लॉक्ड था । सिपाही ने ब्रीफकेस का हिलाया-डुलाया । शायद वह कुछ खोजने की कोशिश कर रहा था । तभी नीचे खड़े इंस्पेक्टर ने जोर से चिल्लाया,"।चटकिंग खत्म नहीं हुई क्या ? चलो नीचे उतरो, देर हो रही है। "



इंस्पेक्टर की आवाज सुनकर सिपाही नीचे उतरने लगे । चेक करने वाले सिपाही ने भी सोचा होगा कि रामसिंह के ब्रीफकेस में कुछ कपड़े ही होंगे क्योंकि वह ज्यादा भारी नहीं था और बस भी लगभग 15 मिनट से खड़ी थी । यात्री भी देरी के लिए चिल्लाने लगे थे ।



बस चलने लगी । रामसिंह बस में नही चढ़ा । अजीत सोचने लगा, "शायद रामसिंह कुछ खरीदने लगा हो और बस छूट गई हो। कोई बात नहीं, वह बस अड्डे पर मिला जाएगा। अपना सामान लेने तो आएगा ही।''



लगभग 25 मिनट बाद बस दिल्ली बस अड्डे पहुँच गई । सब यात्री अपना अपना सामान लेकर उतरने लगे । अजीत भी अपना सामाना उठाने लगा । वह रामसिंह को बाहर देखने लगा पर बाहर वह कहीं नज़र नहीं आया । अजीत ने उसका ब्रीफकेस भी उतार लिया और नीचे उतरकर रामसिंह का इंतजार करने लगा ।



अजीत को रामसिंह का इंतजार करते-करते दस मिनट गुज़र चुके थे लेकिन उसका कही अता पता नहीं था । तभी अजीत के मन में कुविचार आने लगे- "अरे अजीत, रामसिंह के ब्रीफकेस में 50-60 हजार रूपए हैं । वह न ही मेरा पता जानता है और न ही नाम । मैं इसे घर ले चलता हुँ । आई हुई लक्ष्मी को नहीं ठुकराते । बिन माँगे माया मिल रही है । ऑटो पकड़ो और चुपचाप घर निकल चलो । "



अपने मन को समझाने के लिए फिर अजीत सोचने लगा- "राम सिंह का पता भी तो मालूम नहीं है और यदि तुम यह ब्रीफकेस पुलिस को दोगे तो वह भी तो अपने पास ही रख लेगी। आज कल इतना ईमानदार कौन है । तुम ही क्यों न इस पैसे को खुद रख लो । "



और अजीत ने ऐसा सोचते सोचते एक ऑटो को आवाज़ दी और उस में सामान रखकर उसे शाहदरा चलने को कहा। कुछ देर बाद ऑटो शाहदरा पहुच गया। उसने सामान उतारा, ऑटो वाले को पैसे दिए और घर पहुच गया । घर आते ही उसने रामसिंह का ब्रीफकेस का ताला तोड़ दिया । उसे कुछ कपड़े नजर आये । उसने कपड़ों को हटाया तो उसे पोलिथिन में लिपटे कुछ पैकेट नज़र आये ।



उसने एक पैकेट उठाकर ध्यान से देखा तो वह घबरा गया- "बाप रे बाप, यह तो हिरोइन है । हिरोइन से भरे इतने पैकेट देखकर अजीत स्तब्ध रह गया । उसके माथे पर पसीना आ गया। हाथ कॉपने लगे। उसे कुछ नहीं सूझा। उसने सोचा पहले चाय बनाई जाए। उसने चाय गैस पर चढ़ाई। मस्तिष्क अशांत था और उसमें तरह तरह के विचार मन में आने लगे,- " हिरोइन रखना कानूनी अपराध है। यह अपराध "एन्टी नारकाटिक्स एक्ट के तहत 'नॉन बेलेबल' है। सजा 10 साल से कम नहीं। यदि पुलिस आ गई तो तुम रंगे हाथों पकड़े जाओगे ।''



अजीत ने चाय कप में डाली और कुर्सी पर बैठ गया । चाय सामने मेज पर रखी हुई थी लेकिन उसे पीने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । उसे फिर बुरे बुरे विचारों ने घेर लिया, "हिरोइन 8-10 लाख से कम की नहीं होगी । रामसिंह जिस भी गैंग का सदस्य होगा, वह मुझे ढूँढ़ ही लेंगे और ब्लेकमेल करेंगे। अपने गैंग में शामिल करने पर जोर देंगे या फिर मुझे मार डालेंगे।"



ऐसा सोचते सोचते वह पसीने से तर हो गया। वह तुरंत उठा और उस ब्रीफकेस को, हिरोइन सहित कार की गैराज़ में रख आया। उसने सोचा - "पुलिस या गैंग का आदमी यदि यहाँ आया तो कम से कम घर में हिरोइन नहीं ढूँढ़ पाएगा और तुम बच जाओगे । "



अजीत चाय पीने लगा । चाय उसे कड़वी लग रही थी । तभी उसे ध्यान आया ,"अरे बेवकूफ ! पुलिस तो गैराज़ भी ढूढ़ेगी , और यदि गैराज़ में हिरोइन मिल गई तो तुम्हें 10 साल की कैद हो जाएगी । जमानत भी नहीं होगी और बेइज्जती होगी सो अलग । "



अजीत ने चाय बीच में ही छोड़ दी और कमरे में टहलने लगा । कभी इधर जाता तो कभी उधर । यह ब्रीफकेश उसका दुश्मन बन गया था । उसका मन का चैन गायब हो चुका था; ब्रीफकेस के अलावा उसने दिमाग में कुछ भी नहीं आ रहा था । जैसे सोचने की शक्ति बिल्कुल खत्म हो गई हो ।



तभी दरवाजे की घंटी बजी । अजीत थर थर काँपने लगा। वह सोचने लगा - "शायद गैंग के आदमी हैं।.... नहीं नहीं, शायद पुलिस होगी।"



अजीत जैसे शक्तिहीन हो गया था । उसके पास दरवाजें के पास तक चलने की हिम्मत भी नहीं थी । कभी उसे लगता पुलिस उसे हथकड़ी पहनाकर थाने ले जा रही है और कभी लगता असामाजिक गैंग के गुंडों ने उसे गोली मार दी है । तभी उसे दरवाजे के बाहर से आवाज आई, " साहिब जी, सो रहे हो क्या ? मैं महरी हूँ ; घर का काम करने आई हूँ । "



महरी की आवाज सुनकर अजीत की जान मे जान आई । लेकिन अजीत ने दरवाजा नहीं खोला और न ही कुछ उत्तर दिया । महरी ने तीन चार बार घंटी बजाई, कुछ इंतजार किया और फिर चली गई ।



बाहर सूरज छिप चुका था । कुछ-कुछ अँधियारा छाने लगा था । उसके दिमाग में एक विचार आया -" क्यों न इस ब्रीफकेस को कहीं बाहर फेंक आऊँ । न रहेगा बांस और न बजेगी बासुरी ।"



वह चुपचाप उठा और उस ब्रीफकेस को लेकर बाहर जाने लगा । पास ही एक गंदा नाला बहता था । उसने सब हिरोइन उस नाले में फेंक दी और एक सूनसान जगह पर ब्रीफकेस भी छोड़ दिया । अँधेरे में अजीत को कोई नही देख पाया । घर आकर उसने राहत की साँस ली ।



उसका डर कम तो हुआ लेकिन अभी भी वह घबराया हुआ था । कहीं कोई ढूढ़ता हुआ यहाँ न आ जाए । वह दो दिन ऑफिस भी नहीं गया । उसे डर था कही रामसिंह न मिल जाए और हिरोइन माँगने लगे ।



दो दिन बाद सहमा सहमा वह ऑफिस गया । उसे लगा जैसा हर आदमी उसे घूर रहा हो ।



आज उस घटना को घटे लगभग एक साल बीत चुका है । पूरा साल उसने डर- डर कर जिया । शायद जिया ही नहीं । एक साल बीतने पर भी उसे सपने में कभी रामसिंह और कभी पुलिस नज़र आती रहती है। यह डर- डर कर हर पल मरने की यह सज़ा 8-10 लाख जुर्माने से भी महंगी थी । लालच व्यक्ति को कैसे किसी अंधे कुएँ में गिरा सकता है - यह बात वह कभी नहीं भूल सकता ।



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Dr Pramod Kumar

Email: drpk1956@gmail.com

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Friday, March 25, 2011

माँ का अहसान-ड़ा प्रमोद कुमार

माँ का अहसान-ड़ा प्रमोद कुमार




``शेरांवाली की जय, पहाड़ावाली की जय.......'' भक्तों की एक लम्बी कतार माँ की जय जयकार करती सीढ़ीयाँ चढ़ रही थी । माँ के भक्तों में औरतें, बच्चे, वृद्ध-सभी थे । सब के मन में माँ के दर्शन करने की लालसा थी ।


विवाहोपरांत दस वर्षों तक सन्तान सुख से वंचित रहने के कारण मैंने माँ वैष्णों देवी से सन्तान की याचना की थी । उनकी कृपा से सन्तान सुख प्राप्त होने पर मेरी बलवती इच्छा हुई कि उनके चरणों पर अपना शीष नवा आऊँ ।


मेरी यह वैष्णों देवी की पहली यात्रा थी । मेरे साथ मेरी पत्नी और एक साल की पुत्री थी । दो बैग भी थे जिनमें यात्रा के लिए जरूरी सामान भरा था । इन दो बैगों एवं बच्ची को लेकर दस-ग्यारह मील की सीधी ऊँचाई चढ़ना हमारे लिए बहुत ही मुश्किल था । मैं कुली के बारे में सोच ही रहा था तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया । उम्र 52-54 वर्ष, गोरा रंग और उस पर काला कमीज़ एवं पजामा पहने था । छोटी-छोटी सफेद दाढ़ी झुर्रियों वाले चेहरे पर भी अच्छी लग रही थी ।


उसने मेरे तरफ देखते हुए पूछा, ``साब, पिटठू चाहिए ?''


मैंने कहा, ``हाँ चाहिए, कितने पैसे लोगे ?''


वह बोला, ``साब, जो चाहो दे देना ।''


मैंने उसको देखते हुए पूछा, ``क्या ये दो बैग और इस बच्ची को लेकर चढ़ पाओगे ?''

उसने दोनों बैग मेरे हाथ से लेते हुए कहा, ``साब, सब ले चलूँगा । आपको कोई तकलीफ नहीं होगी । आप बिलकुल चिन्ता न करें ।'' उसने दोनों बैग कन्धों पर लटका लिए और बच्ची को अपने कन्धों पर बैठा लिया । हम सब धीरे-धीरे चढ़ने लगे ।


चारों तरफ हरे-हरे पेड़ थे । मैंने ऊँचाई की तरफ देखा । रास्ता ऊँचा और लम्बा था । यात्रा की बोरियत दूर करने के लिए मैं पिट्ठू से बातें करने लगा ।

``पिट्ठू, तुम्हारा नाम क्या है ?'' - मैंने उससे पूछा ?

``साब, मेरा नाम अहसान् अली है ।'' - उसने जवाब दिया ।

मुझे उसका नाम सुनकर आश्चर्य हुआ । मैंने तुरन्त पूछा, ' अरे, तुम तो मुसलमान हो ; फिर हिन्दुओं को मन्दिर ले जाने में सहायता क्यों करते हो ?''


उसने तुरन्त मेरी तरफ देखते हुए कहा, ``तो क्या हुआ साब, खुदा तो है ही न । उसके पास जाने के रास्ते अलग-अलग हैं । कोई पैगम्बर को मानता है और कोई माँ के दरबार को ।'' वह चलते-चलते बोलता रहा, ``सच बताऊँ साब, ये देवी माँ ही जो मुझे रोटी देती है । मेरे बच्चों को पालती है । मुझे पिट्ठू का काम करते हुए 40 साल हो गये है । मैं बचपन से यह काम कर रहा हूँ । शादी की । मकान बनाया । 6 बच्चों को पाला और उनकी शादियाँ की । सब माँ के आशिर्वाद से । माँ ने क्या नहीं दिया । मुझे सब कुछ तो दिया । वैष्णों माँ की कृपा से ही तो मुझे रोटी मिलती है । कभी किसी भक्त को माँ के दरबार ले जाता हूँ ; कभी किसी वृद्ध को उसके दर्शन कराने दरबार तक पहुँचाता हूँ । मुझे माँ के भक्तों की सहायता करने में बहुत अच्छा लगता है ।''


उसने कुछ रुककर फिर कहा,``मैं सच कहता हूँ साब, देवी मेरी माँ है । यही मुझे और मेरे परिवार को पालती है । माँ की कृपा से ही मेरे बच्चे कभी भूखे नहीं सोये ।''


मैं और मेरी पत्नी चलते-चलते थक गये थे । मैंने अहसान अली को रोकते हुए कहा, ``अहसान भाई ! जरा आराम कर लो । चलो थोड़ी-थोड़ी चाय पी जाए ।''


पास ही पत्थर के बैन्च बने थे। हमने बैग से थरमस निकाल कर तीन कपों में चाय डाली और पीने लगे। कुछ देर आराम करके हम फिर चलने लगे। मैं अहसान अली के बारे में कुछ और जानने के लिए उत्सुक था। मैंने पूछा, ``अहसान भाई, तुम 24 घण्टों में कितने चक्कर लगा लेते हो ?''

उसने जवाब दिया, ``साब, दिन में दो चक्कर लगा लेता हूँ । 150-200 रूपये की आमदनी हो जाती है ।''


मैंने फिर पूछा, ``अहसान तुम रहते कहाँ हो ।''


``साब यहीं कश्मीर में । यहाँ से पाँच कोस दूर मेरा गाँव है ।'' - उसने बताया ।

मैं और मेरी पत्नी, दोनों थक गए थे। लेकिन अहसान अली हमारा सामान और बच्ची को कन्धों पर बैठाए चला जा रहा था। उसे न तो कोई थकान महसूस हो रही थी और न ही कोई परेशानी। हमारे आगे-पीछे बहुत से लोग चले जा रहे थे। सभी माँ की जय-जयकार कर रहे थे । तभी मैंने देखा दो पिट्ठू एक बुजुर्ग को पालकी में बैठा कर चले जा रहे हैं । एक भक्त जमीन पर लेट-लेट कर माँ के दरबार की तरफ जा रहा था ।


मैंने यह सब देखकर अहसान अली से कहा, ``अहसान भाई, माँ में लोगों की बड़ी श्रद्धा है ।''

अहसान अली कहने लगे, ``साब, देवी माँ के दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते हैं । चाहे गरीब हो या अमीर माँ हर इन्सान की मन्नत पूरी करती है । हर भक्त के दुखों को दूर करती है । उसके दरबार में आने वाले सब उसके बच्चे हैं चाहे वह किसी जाति, धर्म और देश का हो । माँ की निगाह में सब बराबर हैं ।''


तभी माँ का दरबार आ गया । मैंने अहसान अली से कहा, ``अहसान भाई, तुम रूको, हम अभी माँ के दर्शन करके आते हैं । फिर साथ खाना खायेंगे ।''


अहसान अली ने कहा, ``मैं भी आप के साथ माँ के दर्शन करने चलूँगा ।''


"अरे भाई तुम मुसलमान हो और मुसलमान मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते।'' - मैंने कहा ।


अहसान अली ने कुछ गुस्से में कहा, ``साब, देवी माँ मूर्ति नहीं है । वह हमारी माँ है । माँ जो बच्चों को पालती है, खाना देती है । माँ कहीं मूर्ति होती है । देवी माँ को मूर्ति कहकर, माँ का अपमान मत करो।''


अहसान अली के मुख से इन शब्दों को सुनकर मैं चौंक सा गया । मुझे लगा अहसान अली ही देवी माँ का सच्चा भक्त है । वह पिछले 40 सालों से खुद ही माँ के दर्शन नहीं करता रहा बल्कि हजारों भक्तों को भी माँ के दरबार पहुँचाने में मदद करता रहा है । मुझे ऐसा लगा जैसे अहसान भाई एक नाव है जो आत्माओं को इस भव सागर से पार कराकर परमात्मा से मिलाती है । न तो कभी सांसारिक रीति-रिवाज उसके रास्ते में दीवार बने और न ही कोई सांसारिक सोच उसके रास्ते आड़े आयी । उसका प्यार देवी से ऐसा था जैसे बेटे का माँ से ; एक भक्त का उसकी आराध्य देवी से । मुझे ऐसा लगा जैसे अहसान अली भक्तों की कतार में सबसे आगे खड़ा हो । सचमुच प्यार और भक्ति मानव मन की उपजी वो भावनाएँ हैं जो व्यक्ति की सोच पर निर्भर करती है, न कि उसके हिन्दू या मुसलमान होने पर ।


मुझे यह अहसास हुआ कि व्यक्ति की सोच काफी हद तक उसकी सांसारिक और भौतिक जरूरतों पर निर्भर करती है और ये जरूरतें काफी हद तक उसकी उन व्यक्तिगत इच्छाओं पर आधारित होती है जो उस वातावरण में पलती हैं जिसमें वह रहता है ।


और मैं माँ के दर्शन करके घर वापिस लौट आया ।

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Dr Pramod Kumar

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फैसला-ड़ा प्रमोद कुमार

फैसला-ड़ा प्रमोद कुमार





आज देवेन और ऊषा की शादी हुए पूरे 21 वर्ष गुज़र चुके हैं । हर साल बहार का मौसम आकर चला गया लेकिन इनके आँगन में न तो कोई फूल खिल सका और न ही कोई कली मुस्करा पाई । देवेन और ऊषा का आँगन सूना ही रहा । पतझड़ की तरह सूखा सा। न तो इसमें किसी बच्चे की किलकारी गूँजी और न कोई चहचहाट। बच्चा होने की आस में 21 बहारें पतझड़ बन गई । जाने कितने डॉक्टरों से इलाज कराया लेकिन कोई फायदा नही हुआ । कोई मज्रार नही बची जहाँ जाकर इन्होने मन्नत न माँगी हो । यहाँ तक ओघड़ बाबाओं के चक्कर भी लगाए लेकिन सब बेकार। देवेन तो दिन ऑफिस में गुजार देता लेकिन ऊषा सारे दिन घर में अकेली पड़ी रहती । अब तो ऊषा को घर एक वीरान कब्रिस्तान सा लगने लगा ।

हर साल देवेन शादी की वर्षगाँठ पर दफ्तर से छुट्टी ले लिया करता । आज भी वह छुट्टी पर है । हर साल की तरह आज भी दोनों अनाथालय जायेंगे और अनाथ बच्चों को कपड़े और मिठाई बाँटेंगे ।


''ऊषा जल्दी तैयार हो जाओ । आज हम अनाथालय तो जायेंगे ही लेकिन उसके बाद पण्डित दीनानाथ जी के यहाँ होकर आयेंगे । पण्डित जी पापा के पुराने दोस्त हैं । अच्छे आदमी हैं । एक अच्छे ज्योतिषी भी हैं । हाँ, जन्मपत्रियाँ रख लेना । पण्डित जी को दिखानी हैं ।'' - देवेन ने ऊषा से कहा ।


ऊषा ने ``जी अच्छा'' कहते हुए जाने की तैयारी शुरू कर दी ।

अनाथालय पहुँचकर उन्होने सब बच्चों को कपड़े और मिठाईयाँ बाँटी । ऊषा की आँखें नम थी । वह अनाथालय के बच्चों को देखकर मन ही मन सोच रही थी, ``भगवान की कैसी माया है । एक तरफ बच्चें है जो ममता को तरस रहे हैं और दूसरी ओर हम हैं जो वात्सल्य पाने को बेवश हैं । बच्चे मौजूद हैं और माँ-बाप की तरह हम भी । लेकिन दोनों के बीच एक गहरी खाई है । अपनेपन की खाई । हम इनको अपना बच्चा नही मान सकते क्योंकि हमने इन्हें पैदा नही किया और दूसरी तरफ ये बच्चें हमें माँ-बाप नही कह सकते क्योंकि ये हमारी औलादें नही हैं ।''


अनाथालय में बहुत से बेऔलाद व्यत्ति इन बच्चों को मिठाई, कपड़े आदि बाँटने आते रहते हैं । शायद ऐसा करने से उनको कुछ मानसिक संतुष्टि मिलती होगी । हो सकता है उन्हें यह महसूस होता हो कि इन अनाथ बच्चों को कुछ देने से भगवान उनकी सुन लेगा और उन्हे औलाद नवाज़ देगा । लेकिन यह सच्चाई है कि उनके इस देने में दान की भावना कम और अपना स्वार्थ अधिक होता है । ऐसा न होता तो ये लोग इन बच्चों को मिठाई नही ममता देते । कपड़े नहीं माँ-बाप का प्यार देते । जिसकी उनको सख्त जरूरत हैं । लेकिन सभी कुछ देर ठहरते है । मिठाइयाँ, कपड़े आदि बाँटते है और अपने घर चले जाते हैं । कोई इन्हें गोद लेने की ज़हमत तक नही उठाता । शायद विरला ही इन्सान यहाँ से बच्चा गोद लेता होगा ।


ऐसा नही था कि देवेन यह सब न समझता हो । देवेन के मन में भी कई बार आया कि वह किसी अनाथ बच्चे को अपना ले । लेकिन उसके मन में जो अपनेपन की चाह थी वह उसे ऐसा करने के लिए रोक लेती । ... ``नहीं नहीं, ये मेरे अपने थोड़े ही हैं । अपना खून अपना ही होता है ।''


अनाथालय के बाद दोनों पण्डित दीनानाथ के घर की ओर चल दिए । वहाँ पहुँचकर ऊषा ने जन्मपत्रियाँ पण्डित जी को देते हुए कहा-``पण्डित जी, कृपया बताएँ हमारी कुण्डलियों में सन्तान-योग है कि नहीं ?''


पण्डित दीनानाथ जन्मपत्रियाँ देखते-देखते कुछ गम्भीर हो गए । कुछ सोचने लगे । कुछ देर बाद बोले, ``क्रूर राहु की पंचम दृष्टि चन्द्रमा को खा रही है । पाँचवाँ स्थान सन्तान का होता है जहाँ चन्द्रमा बैठा है जिस पर राहु की बुरी दृष्टि पड़ रही हैं । चन्द्रमा की कर्क राशि भी राहु के प्रभाव में है क्योंकि राहु अपनी सप्तम दृष्टि से उसे देख रहा है । शनि वृक्री है । बृहस्पति कुण्डली में नीच का बैठा है । शुक्र अस्त है । तुम्हारी राहु की महादशा में शनि ऱन्न् अन्तर चल रहा है । गोचर में भी शुभ ग्रहों का कोई योग नही है । और इस कुण्डली में शनि की साढ़ साती भी चल रही है । देवेन, अभी कोई सन्तान योग नही है ।''


पण्डित जी की बातें सुनकर देवेन और ऊषा के चेहरों पर उदासी छा गई । ``क्या हमारे कभी बच्चा होगा ? '' - देवेन ने दुखी मन से पूछा ।


पण्डित दीनानाथ चुपचाप देवेन की आँखों में झाँकने लगे । कुछ देर बाद पण्डित जी अपनी कुर्सी से उठे और अपने बेटे को बुलाने लगे- ``बेटे रामभक्त ! जरा तीन चाय तो लाना ।''


देवेन पण्डित दीनानाथ को बचपन से जानता था । देवेन के पिता जी कभी-कभी उसे साथ ले पण्डित जी के यहाँ पत्री बचवाने आते थे । तभी वह पण्डित जी के लड़के से मिला था । ``लेकिन उसका नाम तो रमेश था । रमेश का नाम रामभक्त कैसे हो गया । ''-देवेन सोचने लगा ।


तभी रामभक्त चाय ले आया । उसने पहले हमें नमस्कार किया और फिर चाय के कप हमारे सामने रख दिए । चपटी नाक, श्यामल लेकिन तंदरूस्त शरीर और नाटा कद । देवेन सोच में पड़ गया-``रमेश तो गोरा चिट्टा, तीखे नयन-नक्श वाला लम्बा लड़का था । रामभत्त रमेश नही हो सकता ।''


पण्डित दीनानाथ कुर्सी पर बैठते हुए बोले- ``चाय लीजिए ।''

पण्डित जी ने चाय पीते हुए कहा, '' देवेन बेटे ! भगवान की माया भगवान ही जाने । उसकी मन की बात हम मनुष्य नही जान सकते । हम तो उसके द्वारा रची गई सृष्टि के चलन से बस कुछ अन्दाजा लगा सकते है । इन ग्रह नक्षत्रों को पढ़कर केवल कुछ हिसाब ही लगा सकते हैं । भगवान तो बन नही सकते । उसके मन की इच्छा यह तुच्छ मानव मस्तिष्क नहीं जान सकता । तुम जानते हो मेरा एक ही लड़का था । पण्डिताईन उसे दो साल का छोड़ कर स्वर्ग सिधार गई थी । मैंने उसे बड़े प्यार से पाला था । उसे ऊँची पढ़ाई करने के लिए विलायत भेजा । लेकिन वह वहीं बस गया । वहीं एक मेम से शादी कर ली । अपने बुढ़े बाप को अकेले छोड़ गया । पिछले छः साल से उसका चेहरा तक नहीं देखा है । यही रामभक्त है जो मेरी सेवा करता है । अपना खून तो पराया निकला और पराया अपने खून से ज्यादा अपना निकला ।''

मैंने बीच में ही टोकते हुए पूछा, ``पण्डित जी यह रामभक्त कौन है ?''

पण्डित जी ने गम्भीर होते हुए कहा-``देवेन, शायद तुम्हें याद हो । एक औरत हमारे यहाँ काम करती थी जिसका पति शराब बहुत पीता था और इसी कारण वह मर गया था । ये उसी औरत का लड़का है । उस औरत ने हमारी बहुत सेवा की थी । रमेश को भी बचपन से उसी औरत ने सम्भाला था । और यह रामभक्त भी हमेशा रमेश की सेवा में लगा रहता था । रामभक्त सच्चे मन से हमारी इतनी सेवा करता रहा कि कभी स्कूल भी नहीं जा पाया । उस कमबख्त रमेश को जो सफलता मिली है वह रामभत्त की सेवा का ही नतीजा है । अब तुम ही बताओ मेरा बेटा कौन हुआ रमेश या यह रामभक्त ?''

मैंने फिर पूछा, ``लेकिन वह औरत तो नीच जाति की थी ।''

पण्डित जी कहने लगे-``देवेन जात-पात तो इन्सान ने बनाई हैं । सबसे बड़ा रिश्ता तो प्यार और सेवा का होता है, ईमानदारी और विश्वास होता है । भगवान ने तो कभी जात नही बनाई । रमेश मेरे घर पैदा होने से ब्राह्मण नही हो गया । उसके करतूत तो राक्षसों वाले हैं । वह वहाँ शराब पीता है । माँस खाता है । जाने क्या-क्या बुरे कार्य करता है । देवेन, व्यत्ति अपने विचारों, अपने कार्यों एवं अपनी प्रवृतियों से अच्छा या बुरा बनता है । अपनेपन का रिश्ता खून से नही होता बल्कि अपनत्व की उन भावनाओं को अपनाने से होता है जिनका आधार प्यार, इंसानियत, सेवा एवं दूसरे के प्रति ईमानदारी है । रामभक्त की माँ हमारी सेवा करती-करती मर गई और उस बेचारी का यह लड़का आज तक हमारी निस्वार्थ सेवा कर रहा है ।''


देवेन पण्डित जी की बातें सुनकर चुप हो गया । दोनों पण्डित जी से नमस्कार कर वृद्धाश्रम की ओर चल दिए । वृद्धाश्रम में कुल नौ वृद्ध रहते थे । सभी की उम्र 65 से 85 के बीच थी । देवेन और ऊषा ने सभी नौ वृद्धों से बातें की । सभी को फल बाँटे । हर वृद्ध ने अपनी दुख भरी दास्तान सुनाई । एक वृद्ध कहने लगा-``मेरे तीन बेटे हैं । सभी शादीशुदा, लेकिन कोई भी मुझे अपने पास रखने को राज़ी नही हैं । सभी मुझे फालतू चीज समझते हैं ।'' एक दूसरे वृद्ध ने बताया-``मेरी बहू मेरी बहुत बेइज्जती करती थी । मेरे साथ कुत्ते से भी बदतर सलूक करती थी । नालायक लड़का जोरू का गुलाम था । तंग आकर मैं यहाँ आ गया ।'' कुछ ऐसे ही किस्से दूसरे वृद्धों ने भी सुनाए । यह सब सुनकर देवेन और ऊषा बहुत दुखी हुए । भारी मन के साथ दोनों घर आ गए ।


सोफे पर बैठा देवेन सोचने लगा-``संसार में हर प्राणी दुखी है । कोई पाकर दुखी है और कोई न पाने की वजह से दुखी है । हम सब परायों को नकारते रहते हैं लेकिन जिन्हें हम अपना समझते हैं दुख तो वही ज्यादा देते हैं। खून का रिश्ता होने से कोई भी अपना नही हो जाता । अपना वो होता है जो अपनत्व का अहसास जगाता है । चाहे वह पराया ही क्यों न हो । यह सही है कि सांसारिक इच्छाएँ दुख का कारण बनती हैं । लेकिन सभी इच्छाएँ दुख का कारण नही बनती । इच्छाएँ जब पूर्ण होती है तो सुख का अहसास भी होता है । हाँ, अपूर्ण इच्छाएँ एवं अधूरी लालसाएँ दुख का कारण जरूर बनती हैं । इसलिए हमें या तो इच्छाएँ रखनी नही चाहिए और यदि रखी हैं तो उन्हें पाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए ।''

देवेन ने तभी मन ही मन एक फैसला किया । उसने ऊषा को अपने पास बुलाया और कहा-''ऊषा, हम एक बच्चा गोद लेंगे ।''

बच्चा गोद लेने की बात सुनते ही ऊषा का चेहरा खिल उठा । वह बस इतना कह पाई - ``सच'' ।

और दोनों सपनों के संसार में खो गये ।
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Dr Pramod Kumar

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एक रोटी-ड़ा प्रमोद कुमार

एक रोटी-ड़ा प्रमोद कुमार



एक शाम मैं लालबाग के एक रेस्टोरेंट में बैठा चाय पी रहा था । सामने मेज पर दैनिक अखबार पड़ा था । मैंने अखबार उठाया और उसे पढने लगा । अखबार ज्यादातर लूट, चोरी, डाका, कत्ल, रिश्वतखोरी आदि की खबरों से भरा पडा था जो आज के समाज के गिरते स्तर को उजागर कर रहा था । तभी मेरी नज़र एक खबर पर पड़ी जिसमें लिखा था आई.आई.टी पास जवान लड़के ने गोमती में कूदकर आत्महत्या की । आगे लिखा था कि लड़का पिछले दो साल से बेरोजगार था । इसीलिए नौकरी न मिलने के कारण उसने मौत को गले लगा लिया ।



इस खबर को पढकर मैं सोचने लगा,'' क्या कोई भी परेशानी मौत से बड़ी हो सकती है ? क्या जिन्दगी इतनी सस्ती है कि उसे खुद ही मौत को समर्पित कर दो ? आज के माहौल में जीना मुश्किल हो सकता है लेकिन इतना मुश्किल भी नही कि किसी समस्या का कोई हल ही न हो । जिन्दगी और समाज से भागना तो कायरता है । कई लोग अपनी परेशानियों का शीघ्र हल चाहते है इसलिए संघर्ष का रास्ता छोड़कर आसान रास्ता अपनाने लगते है और झूठ, चोरी, रिश्वतखोरी आदि की राह अपना लेते हैं । लेकिन सच्चे मानव मूल्यों का महत्व कभी कम नही होता क्योंकि यही मूल्य तो समाज के स्तम्भ हैं जिन पर समाज रूपी इमारत टिकी हुई है । अभी भी बहुत से लोग हैं जो सिद्धान्तों से समझौता नही करते । सारी उम्र सच्चाई एवं ईमानदारी की राह पर चलकर संघर्ष करते रहते हैं । हो सकता है उन्हें वो ऊँचाई न मिले जिसके वे हकदार हैं । लेकिन इस राह चल कर जो आन्तरिक शान्ति एवं तृप्ति उन्हें मिलती है उसका महत्व ऊँचाइयों से अधिक है, जहाँ उन्हें पहुँचना था। सही रास्ते पर चलना हर पल को आनंदित बनाना है जबकि ध्येय को प्राप्त करना एक पल का आनंद है। सच्चा सुख तो केवल महसूस किया जा सकता है । वह मन का अहसास है । आत्मा का आनन्द है । ''



मैं यह सोच ही रहा था तभी नौ-दस वर्ष के एक लडके ने रेस्टोरेंट में प्रवेश किया । उसने रेस्टोरेंट मालिक को एक रुपये का सिक्का देते हुए कहा, '' एक रोटी मिलेगी ?''



मैंने लड़के के चेहरे की ओर देखा । उसके चेहरे पर भूख की लकीरें तो थी लेकिन सब की सब स्वाभिमान के प्रकाश से रौशन ।



मालिक ने कहा, '' मिल जाएगी'' और ऐसा कहकर उसने बेरे से एक रोटी पर कुछ सब्जी रख लाने को कहा ।



मैं यह सारा मंजर देख रहा था । मैंने बेरे को बुलाया और कहा,'' इस बच्चे को चार रोटियाँ और कुछ सब्जी दे दो । पैसे मैं दे दूँगा ।''



बेरा चार रोटी और कुछ सब्जी कागज पर रखकर लाया और उस लड़के को देने लगा ।



लड़के ने खाने की ओर देखते हुए कहा, '' आपने तो कल चार रुपये की चार रोटियाँ दी थी । आज एक रुपये में चार रोटियाँ क्यों दे रहे हो ? मुझे भीख नही चाहिए । मैंने एक रुपया दिया है। एक रुपये की एक रोटी होती है । आप मुझे एक ही रोटी दीजिए ।''



मुझे बच्चे के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाकर बहुत दु:ख हुआ लेकिन साथ ही साथ ऐसे स्वाभिमानी लड़के से मिलकर प्रसन्नता भी हुई ।



रेस्टोरेंट मालिक भी सब समझ गया और उसने एक रोटी पर कुछ सब्जी रखकर उसे थमा दी । लड़का बैठकर उसे खाने लगा । वह मेरी ही मेज की सामने वाली कुर्सी पर बैठा था । मैंने पूछा बेटे क्या करते हो ? ''



लड़के ने जवाब दिया, '' मैं अगरबत्तियाँ बेचता हूँ । ''



'' दिन में कितनी आमदनी हो जाती है ?'' मैंने फिर पूछा ।



लड़के ने कहा, '' यही कोई 20 - 30 रुपये । हाँ आज 21 रुपये की आमदनी ही हो पायी । साहिब, मेरी माँ बहुत बीमार है । मेरा बाप नही है । इसलिए मुझे ही माँ की सेवा करनी पड़ती है ।''



'' माँ से बहुत प्यार करते हो ?'' मैंने पूछा ।



लड़का बोला,'' माँ ही तो है जिसने मुझे पाला, पोसा । साहिब , मेरी माँ मुझे बहुत प्यार करती है। माँ ने मुझे कहा था - ``बेटा, भूखा रह लेना लेकिन कभी किसी के सामने हाथ नही फैलाना । भीख नही माँगना । न कभी चोरी करना और न ही कभी झूठ बोलना । ये बातें पाप हैं क्योंकि ये स्वयं को तो दुख देती ही हैं, दूसरों का भी विश्वास तोड़ती है; उन्हें दुख पहुंचाती है । तुम मेहनत से ही कमा कर खाना ।''



'' अच्छा साहिब, मैं अब चलता हूँ । मेरी माँ मेरा इन्तजार कर रही होगी । उसे दवा भी पिलानी है।'' - ऐसा कहकर वह उठ कर जाने लगा ।



मैं उसे जाते हुए देखने लगा । वह एक रोटी खाकर भी संतुष्ट था । वह स्वाभिमान से अपने घर की ओर चला जा रहा था - अपनी बीमार माँ के आँचल में सो जाने के लिए। दूसरी और सूर्य डूब रहा था - अस्ताचल में खो जाने के लिए।



मुझे आज सायं दो सूर्य जाते नजर आ रहे थे । एक सूर्य की लालिमा तो उसकी उस खुशी को प्रकट कर रही थी जो उसे अपने कर्त्तव्य निभाने में मिली थी । उसका सारे दिन जलना सार्थक हुआ था क्योंकि उसने खुद जलकर भी दूसरों को रोशन किया, जीवित रखा । दूसरा सूर्य उस लड़के का स्वाभिमान के साथ चमकता चेहरा था जो उसने ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य निभाने में पाया था।

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Monday, March 21, 2011

गिरधर की मौत-ड़ा प्रमोद कुमार

गिरधर की मौत- डा. प्रमोद कुमार




गिरधर को रिटायर हुए आज पूरा एक साल हो चुका है । आज के दिन ही 31 जुलाई को पिछले साल वह रिटायर हुआ था । मेरे साथ ही वह एक सहायक यातायात अधिकारी के रूप में कार्य करता था । जब भी मैं छुट्टी जाता वह मेरी सीट का काम भी देखा करता था । बेशक, मैं उसका वरिष्ठ अधिकारी था लेकिन मैंने कभी उससे एक वरिष्ठ अधिकारी की तरह व्यवहार नहीं किया बल्कि हमेशा उसे अपना एक सहकर्मी दोस्त समझा । हम हमेशा साथ-साथ लंच करते और बाद में नीचे कुछ समय घूमने भी जाते ।



मुझे आज भी याद है वह घटना जब हम दोनों एक छोटी-सी दुकान पर केले खा रहे थे । उस दुकान का मालिक एक 80 साल का बुजुर्ग था। उसकी सहायता उसी का एक 50-52 साल का लड़का करता था । लड़का केले काटकर उनमें नमक लगाता और ग्राहकों को देता था ।



लेकिन उस दिन वही लड़का अपने बूढ़े बाप को छुरा दिखाकर कह रहा था, ``ए बापू। तू अब बूढ़ा हो गया है । यह दुकान मेरे पास कर दे । मैंने तेरी बहुत सेवा की हैं । देख, यदि तूने यह दुकान बड़े भाई को दी तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा ।''



मुझे एक बेटे का इस तरह अपने बुढ़े बाप से व्यवहार करना बिल्कुल पसन्द नहीं आया था । मैंने तुरंत उस बूढ़े के लड़के को धमकाते हुए कहा था, ``अरे, रामलाल तुम्हें शर्म नहीं आती । इस छोटी-सी दुकान के लिए तुम अपने बाप को छुरा दिखाते हो । छी-छी.....।''



रामलाल ने तुरन्त जबाब दिया था, ``बाबुजी, आप बाप-बेटे के बीच में मत बोलिए । ये बूढ़ा सठिया गया है । क्या इस दुकान को साथ ले जाएगा । कब्र में पैर लटके हैं लेकिन जायदाद का मोह अभी भी नहीं छोड़ता।''



मैं तब चुप हो गया था । शायद बाप-बेटे के बीच ज्यादा बोलना अच्छा नहीं समझा था । लेकिन वहां से वापस जाते हुए मैंने गिरधर को जरूर समझाया था, ``देखा गिरधर ! यही जायदाद उस बुज़ुर्ग की दुश्मन बन गई है । इसी जायदाद की वजह से उसके अपने परायों जैसा व्यवहार कर रहे हैं ।''



गिरधर ने मेरी बातें सूनकर कुछ हंसकर कहा था, ``नहीं दिवाकर, पैसा ही सब कुछ है । पैसा होने पर पराये भी अपने हो जाते हैं । जायदाद हो तो व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है । बच्चे अपना खून होते हैं । अपना खून कभी अपने खून का कत्ल नहीं करता । यह रामलाल अपने बाप को डरा रहा था । उसे मारने के लिए छुरा थोड़े ही दिखा रहा था ।'' गिरधर को इस विषय में मनाना बहुत ही कठिन था । मैं चुप हो गया ।



आज मुझको उसकी बहुत याद आ रही थी । मैंने सोचा क्यों न उससे मिलने उसके घर चला जाये । और मैं फरीदाबाद जाने वाली बस में बैठ गया । बस चलने लगी और मैं गिरधर की यादों में खो गया ।



गिरधर बहुत की कंजूस व्यक्ति रहा है । जिंदगी भर एक-एक पाई जोड़ता रहा । कभी एक पैसा अपने ऊपर खर्च नहीं किया । उसके कपड़े भी अज़ीबोगरीब किस्म के होते थे । बाद में मुझे पता चला था कि यह पुरानी पैंट-कमीज कबाड़ी बाजार से लाकर पहनता था क्योंकि वहाँ उसे वे चीजें रद्दी के भाव मिल जाती थी । कभी उसने अपने पैसे से चाय तक नहीं पी। जब भी मेरे साथ लंच में बाहर गया, पैसे का भुगतान मैंने ही किया । ऐसे ही एक-एक पैसा जोड़कर उसने फरीदाबाद में एक कोठी बनवा डाली । उसके दो बच्चे हैं । दोनों की शादियां उसने नौकरी में रहते ही कर दी थी लेकिन वे कहीं नौकरी में नहीं लग पाए थे ।



बस ने उसके मकान के पास ही उतार दिया । गिरधर का मकान मुख्य सड़क के पास ही था । मेंने घ्ंाटी बजाई । घर से एक जवान औरत निकलकर आई । मैंने उससे पूछा, ``गिरधर जी हैं ?''



औरत ने गुस्से में कहा 'हां हैं । इस घर को थोड़े ही छोड़ेंगे । मरने पर इसे अपने साथ ले जाएंगे ।'



शायद यह औरत गिरधर के किसी एक लड़के की पत्नी थी । मुझे उसकी बातें सुनकर बुरा लगा । लेकिन मैं उसे कुछ कह नहीं पाया । मैं चुपचाप घर के अन्दर दाखिल होने लगा । लेकिन बाहर वाले कमरे में ही मैंने गिरधर को बैठे पाया । यह कमरा पूरी कोठी से अलग था । शायद नौकरों के रहने के लिए बनाया गया था । कमरा बहुत छोटा था । एक चारपाई और टूटी सी मेज-कुर्सी पड़ी थी । गिरधर ने उठकर बहुत खुशी से हाथ मिलाते हुए कहा, ``अरे भाई, दिवाकर क्या हाल है ? बहुत अच्छा लगा, तुम्हें मिलकर । बैठो ।'' ऐसा कहते हुए उसने कुर्सी मेरी तरफ कर दी ।



मैंने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ``तुमने ये क्या हाल बना रखा है ? ठीक तो है ?''



``हा भाई, बस ठीक ही हूं । अभी मैं तुम्हारे लिए चाय बनाता हूं ।'' और ऐसा कहकर गिरधर स्टोव जलाने लगा । चाय तैयार कर गिरधर ने चाय का एक प्याला मुझे पकड़ाया और एक खूद उठा लिया ।



मैंने चाय का एक घूंट पीया और गिरधर की तरफ देखकर गुस्से में कहा, ``ये सब क्या है ? ये मकान तो तुम्हारा है । तुम अपने ही मकान के सरवेंट क्वार्टर में अकेले पड़े हो । तुम्हारे दो-दो जवान लड़के हैं - बहुएं हैं । किस चीज की कमी है तुम्हें ? क्या बात है ?''



गिरधर पहले तो कुछ देर संकोचवश चुप रहा । फिर कहने लगा, ``दिवाकर भाई ! तुम तो जानते हो मैंने कभी अपने लिए नहीं जीया । एक-एक पैसा बचाकर 500 गज में यह बड़ा मकान बनवाया । यहां तक कि रिश्वत का पैसा भी मैने सब इसी मकान में लगा दिया । मैं खुद रूखा-सूखा खाता रहा लेकिन अपने बच्चों को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी । बच्चों को हर सुविधा दी । लेकिन यही बच्चे एवं मकान जिनके लिए मैंने जिंदगी के सुनहरे दिन कुरबान कर दिये, आज मेरे ही दुश्मन बन गये हैं । जो भी ग्रेच्युटी व भविष्य निधि का पैसा मुझे मिला था, बच्चों ने सब बर्बाद कर दिया ।''



`लेकिन तुमने वह पैसा बच्चों को दिया ही क्यों? मैंने बीच में ही पूछा ।



गिरधर ने रूआंसे-से अन्दाज में कहा, ``मैं पहले नहीं दे रहा था लेकिन बेटों एवं बहुओं ने मुझे प्यार से फुसलाकर सब पैसा ले लिया । क्या करता । दोनों नालायक थे । कुछ काम तो करते नहीं थे । मैंने सोचा शायद कुछ कमाने लगेंगे ।''



``अरे, तुम्हें तो लगभग सात लाख मिला था । कहां गया सब पैसा - मैंने पूछा।''



``पहले-पहले बहुओं एवं बेटों ने बड़ा प्यार जताया । कहने लगे - पिताजी ! हम एक प्लास्टिक के डिब्बे बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं । एक फैक्ट्री बहुत ही सस्ते दामों पर मिल रही है । केवल सात लाख में । फैक्ट्री आप के नाम ही लेंगे । हम उसे चला लेंगे । आप केवल सात लाख दे दीजिए ।''



गिरधर कुछ देर चुप रहकर फिर बोलने लगे - ``और मैंने फैक्ट्री खरीद ली । बच्चे निकम्मे व अय्याश निकले । सब डुबो दिया । फैक्ट्री तो चला नहीं पाए ऊपर से चार लाख का कर्ज और ले लिया । कर्ज चुकाने के लिए फैक्ट्री को बेचना पड़ा । सब पैसा लूट गया । अब बच्चे मकान को बेचने की जिद कर रहे हैं । मेरी कोई इज्जत नहीं करते बल्कि उल्टा-सीधा सुना और देते हैं । सारे घर में खुद मजे से रहते हैं और मुझे नौकरों वाले इस कमरे में डाल दिया है । मैं बूढ़ा हूं । दिल का मरीज हूं । मेरे मरने का इंतजार करते हैं ये नालायक ।'' ऐसा कहकर गिरधर सुबक-सुबककर रोने लगा ।



मुझे गिरधर की दयनीय हालत देखकर बहुत दु:ख हुआ । गिरधर के बच्चे जवान थे । दूसरा मैं एक बाहर का व्यक्ति था । इसलिए मेरा इन बच्चों को कुछ भी कहना ठीक नहीं था । लेकिन मुझसे रहा नहीं गया। पहले मैंने गिरधर पर गुस्सा उतारा, ``अरे बेवकूफ, तूने इन नालायकों को पैसा दिया ही क्यों ? कभी केवल पैसे से व्यापार नहीं किया जाता । पैसे कमाने के लिए अच्छा व्यापारी होना जरूरी होता है । तू भी कितना बड़ा मुर्ख था जो सारी जिंदगी इन बच्चों के लिए जोड़ता रहा । तूने क्या-क्या गलत काम नहीं किये । रिश्वत ली, बेईमानी की । इन बच्चों के लिए ? तुमने अपने लिए तो कभी जिया ही नहीं । अरे इतना तो समझता कि यदि बच्चे अच्छे हों तो खूद कमा लेते हैं और यदि निकम्मे और आवारा हो तो सब उजाड़ देते हैं । चाहे कितनी भी दुनिया भर की दौलत उनके लिए छोड़ जाओ । क्या मिला तुझे ?''



मैं गुस्से से लाल-पीला था । मैंने तुरन्त उसके दोनों बेटों को बुलाया और उन्हें फटकारने लगा, ``अरे, तुम लोगों को शर्म आनी चाहिए । तुम्हारी मां बचपन में ही मर गई थी । इसी तुम्हारे बाप ने तुम्हें पाला-पोसा । क्या-क्या नहीं किया तुम लोगों के लिए । यह मकान बनवाया । सब सुख सुविधाएं दीं और तुम हो कि अपने बुढ़े बाप को इस तरह रख रहे हो । ये मकान, फ्रिज, टी.वी. इस घर की हरेक चीज अभी गिरधर की है । ध्यान से सुन लो । एक पूरा कमरा गिरधर के लिए खाली कर दो । और यदि तुम्हें यहां रहना है तो गिरधर को 1000 रूपये महीना किराया देना होगा । यदि किराया नहीं दे सकते तो इस महान को खाली कर दो । हम इसे किसी और को किराये पर दे देंगे । यदि भविष्य में कभी अपने बाप को परेशान किया तो पुलिस की सहायता से तुम सबको यहां से बाहर कर दूंगा । यदि तुम बाप को बाप नहीं समझ सकते तो बाप के लिए कोई बेटा, बेटा नहीं । समझ गए तुम सब ।''



गिरधर बीच-बीच में मुझे रोक रहा था, ``अरे दिवाकर मरने दो नालायकों को । हैं तो मेरे बच्चे ही। छोड़ो, जाने दो ।''



मुझे गुस्सा आ रहा था, ``कैसे छोड़ दूं । मुझसे तुम्हारी यह हालत देखी नहीं जाती । चलो तुम मेरे घर । मेरे साथ रहना ।''



``दिवाकर तुम बहुत अच्छे हो । मैंने तुम्हें भी बहुत धोका दिया । तुमसे छुप-छुपकर मैं रिश्वत लेता रहता था । लेकिन तुम हमेशा ईमानदार रहे और आज मेरे जैसे बुरे आदमी से भी दोस्ती का हक अदा कर रहे हो । मुझे माफ़ करना दिवाकर ।'' ऐसा कहकर गिरधर गर्दन नीची करके अपने आंसू पोंछने लगा ।



मैंने फिर कहा, ``चलो, मेरे साथ दिल्ली । मेरे घर । मेरे साथ रहना ।''



गिरधर ने हाथ जोड़कर कहा, ``बहुत-बहुत मेहरबानी भाई । अब मैं इस उम्र में बच्चों को छोड़कर कहां जाउं€गा । मैं यहीं ठीक हूं ।''



``तुम्हारी मरजी ! अच्छा ये कुछ रूपये रख लो ! मुसीबत में काम आएंगे'' - और मेंने 5000 रुपये ज़बरदस्ती गिरधर की जेब में डाल दिये ।



``और सुनो! मेरे घर मे दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले हैं । कभी परेशानी हो तो दिल्ली आ जाना।'' - ऐसा कहकर मैंने गिरधर से हाथ मिलाया और बस पकड़कर अपने घर आ गया ।



इस बात को लगभग पांच महीने ही गुज़रे थे कि एक सुबह मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी, ``फरीदाबाद । गिरधर नाम के एक वृध्द को गला घोंटकर उसी के लड़कों ने मार डाला । पुलिस के अधिकारी ने बताया कि वृध्द का कत्ल जायदाद के लिए किया गया था ।''

यह खबर पढ़कर मुझे अत्यत दु:ख हुआ ।

मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ``गिरधर तो वर्षो पहले मर चुका था । लेकिन आज गिरधर की उन भावनाओं एवं मूल्यों की मौत हुई है जिन्हें वह जिंदगी भर जीता रहा ।''

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Tuesday, October 6, 2009

कच्चा मकान-डा. प्रमोद कुमार

कच्चा मकान-ड़ा प्रमोद कुमार

आज ही मुझे एक पत्र मि‍ला । बालू रेत के कण उसमें चि‍पके थे । जैसे ही पत्र पढ़ने लगा तो मुझे लगा कि‍ वह कच्चा मकान जि‍सकी दीवारों से सटकर हम कभी एक साथ बैठे थे, बाते की थी, एक तेज तूफान के कारण बालू से ढक गया हो और मैं एक टीले पर बैठा यह नजारा देख रहा हूं । यह पत्र रेश्मा का था जो जैसलमेर से आया था । पत्र पढ़कर मैं उसका जबाब लि‍खने लगा ।

``प्रि‍य रेश्मा,

तुम्हारा पत्र पढ़कर पुरानी यादें ताज़ा हो गयी। मुझे आज भी याद है पि‍छले महीने की वह दो तारीख जब मैं तुम्हें देखने जैसलमेर गया था । तभी तुमने उस कच्चे मकान के बारे में बताया था जो कभी-कभी गर्मि‍यों में तुफानी हवाओं के कारण बालू रेत में समा जाता था और वहां एक टीला बन जाता था। मैं उस मकान को टीला बनते अपनी आंखो से देख तो नही पाया लेकि‍न आज मुझे चंदीगढ़ वि‍श्ववि‍द्यालय के होस्टल के कमरा नंबर 7 से वह दृश्य साफ-साफ दि‍खलायी पड़ रहा है । मुझे वह मकान बालू रेत में समाते हुए साफ-साफ नज़र आ रहा है ।

जानती हो, मैने कभी सोचा था कि‍ हम शादी के बाद उसी कच्चे मकान में रहेंगे और अपने प्यार से इसे संवारेंगे । प्यार की सीमेन्ट से इसकी दीवारों पर लेप करके इसे पक्का बनाएंगे । जहां हम हो और हो बस हमारा प्यार । और कोई न हो । वो सपनों का मकान आज बालु में समा गया ।

तुमने पत्र में डा. रमेश के बारे में लि‍खा जो तुम्हारे गांव का ही है । तुम उससे बहुत प्यार करती हो पर वह तीन साल पहले तुम्हें कि‍शोरी से युवती बना कर कनाडा चला गया और तुम अभी भी उसको चाहती हो । काश यह बात तुमने दो तारीख को बता दी होती जब मैं तुम्हें जैसलमेर में मि‍ला था । मैं सपने तो न देखता । मुझे अब भी याद है वो दो तारीख । कि‍तने आदर से तुमने मेरा स्वागत कि‍या था । कि‍तने प्यार से मुझे जैसलमेर का कि‍ला दि‍खाया था और सायं को कच्चे मकान की दीवारों की छावँ में बैठकर बाते की थी । वो टीलों पर घुमाना मुझे आज भी याद है । बालू रेत की ठंडी-ठंडी हवाएँ और रेत के टीलो पर तुम्हारे साथ हाथ में हाथ ले चलना मुझे आज भी याद है । तुम्हारे शेखावाटी तीखे नयन-नक्स मुझे बहुत आकर्षि‍त करते थे और तुम्हारे पि‍ता श्री रणसिंह सेखावतजी तो दि‍ल से चाहते थे कि‍ तेरी और मेरी शादी हो जाये ।

रेश्मा, तुमने रमेश के बारे में पहले न बतला कर अच्छा नहीं कि‍या । मैंने तुम्हें प्यार की नि‍गाह से देखा था और दि‍ल से चाहा था । क्या तुमने अपने माता-पि‍ता को रमेश के बारे में बताया ? यदि‍ नहीं तो तुरन्त बता दो जि‍ससे की वे रमेश के मां-बाप से मि‍लकर तुम्हारी रमेश से शादी की बात कर सकें । यदि‍ तुम उसे चाहती हो तो तुरन्त बता दो । तुमने लि‍खा है कि‍ रमेश ना तो कनाडा से वापस आना चाहता है और न ही तुम्हें वहां बुलाना चाहता है । लेकि‍न क्यों? क्या वह तुम्हें प्यार नहीं करता ?

तुमने पत्र मे आगे लि‍खा है कि‍ मुझे रमेश के बारे में जानकर बुरा तो नही लग रहा है । रेश्मा ! मैं बुरा तो नहीं मान रहा लेकि‍न हां अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि‍ तुमने ये सब बाते मुझे उस समय नहीं बतायी । तुम लि‍खती हो कि‍ तुमने अपनी इज्जत छुपाने एवं मां-बाप को परेशानीे से बचाने के लि‍ए जैसलमेर में उस दि‍न ये सब बातें मुझे नहीं बतायीं ।

रेश्मा, कोई बात व्यक्ति‍ हमेशा के लि‍ए नहीं छुपा सकता । इश्क छुपाने से नहीं छुपता । व्यक्ति‍ अपने आप से कोई बात छुपा ही नहीं सकता । वक्त कभी न कभी हर बात कह देता है और यदि‍ वह नहीं कहता तो व्यक्ति‍ का व्यवहार एवं उसका चेहरा उन वि‍चारों और भावों को प्रकट कर देता है जि‍सको वो छुपाने का प्रयत्न करता है ।

रेश्मा, तुम अपने बूढ़े मां-बाप एवं अपने आप को धोखा दे रही हो। काश तुम समझ सकती प्यार क्या होता है । प्यार वासना नहीं है, और न ही प्यार केवल शारीरि‍क मि‍लन है । प्यार एक आत्मि‍क सुख है, एक शक्ति‍ है, एक सच्ची तृप्ति‍ है, एक मन की भावना है । एक लहर है जो सुख-दु:ख की सतह से कही बहुत नीचे गहरे तल पर हि‍लोरे लेती है । शरीर रूपी साज की वह धुन है जि‍सकी आवाज से आत्मा को संतुष्टि‍ मि‍लती है । प्यार एक भक्ति‍ है, एक तपस्या है । प्यार दो आत्माओं का मि‍लन है । प्यार एक ऐसा व्यापार है जहां खोना ही पांना है, जहां देना ही लेना है ।

रेश्मा ! मेरी शादी तुमसे हो या न हो लेकि‍न मैं हमेशा तुम्हारा भला ही चाहूंगा । इसलि‍ए कहता हूं कि‍ अपने और रमेश के संबंधों के बारे में अपने माता पि‍ता को तुरन्त बता दो और यदि‍ रमेश तुुमसे शादी नहीं करता तो उसे भूल जाओ । जीवन बहुत ही छोटा है । समय ने इसे पूर्ण रूप से जकड़ रखा है ।

तुम्हारे पत्र में यह लि‍खा है कि‍ तुम रमेश को चाहती हो और उसी से शादी करोगी । रेश्मा, इसे मैं तुम्हारा पागलपन कहूं या तुम्हारा भोलापन । याद रखो, एक हाथ से ताली नहीं बजती ।

तुम आगे लि‍खती हो कि‍ तुम एक डाक्टर से शादी करना चाहती हो जो अमीर हो । बेवकूफ लड़की, मैं एक शुभचि‍न्तक की हैसि‍यत से तुम्हें यही कहूंगा कि‍ दो व्यक्ति‍यों का बंधन मन और आत्माओं का होना चाहि‍ए और प्यार का सांसारि‍क लालसाओं से क ोई संबंध नहीं । सांसारि‍क लालसाओं को पाने के लि‍ए बनाये तन के सम्बन्ध वो संतुष्टि‍ नहीं दे सकते जो मन और आत्माओं के बंधन एवं संबंधों से मि‍लते है । एक वेश्या लाख सुख सुवि‍धाओं से पूर्ण हो, पैसे वाली हो, तन-सुख हो पर वह सबसे दु:खी एवं गरीब औरत होती है । काश तुम संबंधों का वि‍ज्ञान समझ पाती । व्यक्ति‍ का डाक्टर, वकील, व्यापारी या जज-होना उतना जरूरी नहीं जि‍तना उसका अच्छा होना, सच्चा होना, ईमानदार होना । केवल पैसा ही संतुष्टि‍ और सुख नहीं देता । ऐसा होता तो हर अमीर सुखी होता, संतुष्ट होता । सांसारि‍क इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती । ये जि‍तनी ही बढ़ती जाती है उतने ही दु:ख बढ़ते जाते है
रेश्मा, मैं तुम्हारा दि‍ल नहीं तोड़ना चाहता और न ही रमेश के खि‍लाफ तुम्हें भड़का रहा हूं । अंत में तुम्हें यही दि‍ल से दुआ देता हूं कि‍ तुम खुश रहो । तुम्हारी इच्छाएं पूरी हों । तुम रमेश से शादी कर पाओं और जि‍न्दगी भर सुखी रहो ।

पत्र लि‍खकर मैने उसे लि‍फाफे में डाला और लि‍फाफे को चि‍पका कर बंद कर दि‍या । उस पर रेश्मा का पता लि‍खा और अपने कमरे की खि‍ड़की से बाहर देखने लगा । दि‍नकर अपनी सारे दि‍न की यात्रा के बाद अस्तांचल में छुपने जा रहा था । चारों ओर सांझ की लालि‍मा दि‍नकर की खुशी को दर्शा रही थी । मुझे ऐसा लगा जैसे सूर्य मुझ पर हंस रहा हो । सारे दि‍न जलने पर भी वह खुश है क्योंकि‍ उसे यह संतुष्टि‍ है कि‍ उसका जलना सार्थक हुआ । उसने खुद को जला कर संसार को रोशन कि‍या और सब को जीवि‍त रखा ।

अब सूर्य ढल चुका था । धीरे-धीरे सूर्य की लालि‍मा कम हो गयी थी । अचानक मुझे लगा कि‍ तेज हवा का एक झोंका रेत के टीले समेत उस कच्चे मकान को भी उड़ाकर कहीं दूर ले गया । अब केवल अंधकार ही अंधकार था । अब न कोई टीला था और न ही कोई मकान । बस मैं था और था चंडीगढ़ वि‍श्ववि‍द्यालय के होस्टल का वह कमरा नंबर सात । मैने लि‍फाफा हाथ में लि‍या और उसे लेकर लेटर बाक्स में डालने बाहर चल दि‍या । पत्र लेटर बाक्स में डालकर मैं अपने कमरे में आ गया । कुर्सी पर बैठकर खि‍ड़की से बाहर देखने लगा ।

बाहर रात का अंधेरा छा चुका था । यह रात का अंधेरा मुझे परेशान कर रहा था लेकि‍न मैं शांत
था, क्योंकि‍ मुझे पता था कि‍ हर रात के अंधकार के बाद सुबह का उजाला आता है । मैं उस उजाले की आस मन में लि‍ये अपने बि‍स्तर पर लेट गया ।