माँ का अहसान-ड़ा प्रमोद कुमार
``शेरांवाली की जय, पहाड़ावाली की जय.......'' भक्तों की एक लम्बी कतार माँ की जय जयकार करती सीढ़ीयाँ चढ़ रही थी । माँ के भक्तों में औरतें, बच्चे, वृद्ध-सभी थे । सब के मन में माँ के दर्शन करने की लालसा थी ।
विवाहोपरांत दस वर्षों तक सन्तान सुख से वंचित रहने के कारण मैंने माँ वैष्णों देवी से सन्तान की याचना की थी । उनकी कृपा से सन्तान सुख प्राप्त होने पर मेरी बलवती इच्छा हुई कि उनके चरणों पर अपना शीष नवा आऊँ ।
मेरी यह वैष्णों देवी की पहली यात्रा थी । मेरे साथ मेरी पत्नी और एक साल की पुत्री थी । दो बैग भी थे जिनमें यात्रा के लिए जरूरी सामान भरा था । इन दो बैगों एवं बच्ची को लेकर दस-ग्यारह मील की सीधी ऊँचाई चढ़ना हमारे लिए बहुत ही मुश्किल था । मैं कुली के बारे में सोच ही रहा था तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया । उम्र 52-54 वर्ष, गोरा रंग और उस पर काला कमीज़ एवं पजामा पहने था । छोटी-छोटी सफेद दाढ़ी झुर्रियों वाले चेहरे पर भी अच्छी लग रही थी ।
उसने मेरे तरफ देखते हुए पूछा, ``साब, पिटठू चाहिए ?''
मैंने कहा, ``हाँ चाहिए, कितने पैसे लोगे ?''
वह बोला, ``साब, जो चाहो दे देना ।''
मैंने उसको देखते हुए पूछा, ``क्या ये दो बैग और इस बच्ची को लेकर चढ़ पाओगे ?''
उसने दोनों बैग मेरे हाथ से लेते हुए कहा, ``साब, सब ले चलूँगा । आपको कोई तकलीफ नहीं होगी । आप बिलकुल चिन्ता न करें ।'' उसने दोनों बैग कन्धों पर लटका लिए और बच्ची को अपने कन्धों पर बैठा लिया । हम सब धीरे-धीरे चढ़ने लगे ।
चारों तरफ हरे-हरे पेड़ थे । मैंने ऊँचाई की तरफ देखा । रास्ता ऊँचा और लम्बा था । यात्रा की बोरियत दूर करने के लिए मैं पिट्ठू से बातें करने लगा ।
``पिट्ठू, तुम्हारा नाम क्या है ?'' - मैंने उससे पूछा ?
``साब, मेरा नाम अहसान् अली है ।'' - उसने जवाब दिया ।
मुझे उसका नाम सुनकर आश्चर्य हुआ । मैंने तुरन्त पूछा, ' अरे, तुम तो मुसलमान हो ; फिर हिन्दुओं को मन्दिर ले जाने में सहायता क्यों करते हो ?''
उसने तुरन्त मेरी तरफ देखते हुए कहा, ``तो क्या हुआ साब, खुदा तो है ही न । उसके पास जाने के रास्ते अलग-अलग हैं । कोई पैगम्बर को मानता है और कोई माँ के दरबार को ।'' वह चलते-चलते बोलता रहा, ``सच बताऊँ साब, ये देवी माँ ही जो मुझे रोटी देती है । मेरे बच्चों को पालती है । मुझे पिट्ठू का काम करते हुए 40 साल हो गये है । मैं बचपन से यह काम कर रहा हूँ । शादी की । मकान बनाया । 6 बच्चों को पाला और उनकी शादियाँ की । सब माँ के आशिर्वाद से । माँ ने क्या नहीं दिया । मुझे सब कुछ तो दिया । वैष्णों माँ की कृपा से ही तो मुझे रोटी मिलती है । कभी किसी भक्त को माँ के दरबार ले जाता हूँ ; कभी किसी वृद्ध को उसके दर्शन कराने दरबार तक पहुँचाता हूँ । मुझे माँ के भक्तों की सहायता करने में बहुत अच्छा लगता है ।''
उसने कुछ रुककर फिर कहा,``मैं सच कहता हूँ साब, देवी मेरी माँ है । यही मुझे और मेरे परिवार को पालती है । माँ की कृपा से ही मेरे बच्चे कभी भूखे नहीं सोये ।''
मैं और मेरी पत्नी चलते-चलते थक गये थे । मैंने अहसान अली को रोकते हुए कहा, ``अहसान भाई ! जरा आराम कर लो । चलो थोड़ी-थोड़ी चाय पी जाए ।''
पास ही पत्थर के बैन्च बने थे। हमने बैग से थरमस निकाल कर तीन कपों में चाय डाली और पीने लगे। कुछ देर आराम करके हम फिर चलने लगे। मैं अहसान अली के बारे में कुछ और जानने के लिए उत्सुक था। मैंने पूछा, ``अहसान भाई, तुम 24 घण्टों में कितने चक्कर लगा लेते हो ?''
उसने जवाब दिया, ``साब, दिन में दो चक्कर लगा लेता हूँ । 150-200 रूपये की आमदनी हो जाती है ।''
मैंने फिर पूछा, ``अहसान तुम रहते कहाँ हो ।''
``साब यहीं कश्मीर में । यहाँ से पाँच कोस दूर मेरा गाँव है ।'' - उसने बताया ।
मैं और मेरी पत्नी, दोनों थक गए थे। लेकिन अहसान अली हमारा सामान और बच्ची को कन्धों पर बैठाए चला जा रहा था। उसे न तो कोई थकान महसूस हो रही थी और न ही कोई परेशानी। हमारे आगे-पीछे बहुत से लोग चले जा रहे थे। सभी माँ की जय-जयकार कर रहे थे । तभी मैंने देखा दो पिट्ठू एक बुजुर्ग को पालकी में बैठा कर चले जा रहे हैं । एक भक्त जमीन पर लेट-लेट कर माँ के दरबार की तरफ जा रहा था ।
मैंने यह सब देखकर अहसान अली से कहा, ``अहसान भाई, माँ में लोगों की बड़ी श्रद्धा है ।''
अहसान अली कहने लगे, ``साब, देवी माँ के दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते हैं । चाहे गरीब हो या अमीर माँ हर इन्सान की मन्नत पूरी करती है । हर भक्त के दुखों को दूर करती है । उसके दरबार में आने वाले सब उसके बच्चे हैं चाहे वह किसी जाति, धर्म और देश का हो । माँ की निगाह में सब बराबर हैं ।''
तभी माँ का दरबार आ गया । मैंने अहसान अली से कहा, ``अहसान भाई, तुम रूको, हम अभी माँ के दर्शन करके आते हैं । फिर साथ खाना खायेंगे ।''
अहसान अली ने कहा, ``मैं भी आप के साथ माँ के दर्शन करने चलूँगा ।''
"अरे भाई तुम मुसलमान हो और मुसलमान मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते।'' - मैंने कहा ।
अहसान अली ने कुछ गुस्से में कहा, ``साब, देवी माँ मूर्ति नहीं है । वह हमारी माँ है । माँ जो बच्चों को पालती है, खाना देती है । माँ कहीं मूर्ति होती है । देवी माँ को मूर्ति कहकर, माँ का अपमान मत करो।''
अहसान अली के मुख से इन शब्दों को सुनकर मैं चौंक सा गया । मुझे लगा अहसान अली ही देवी माँ का सच्चा भक्त है । वह पिछले 40 सालों से खुद ही माँ के दर्शन नहीं करता रहा बल्कि हजारों भक्तों को भी माँ के दरबार पहुँचाने में मदद करता रहा है । मुझे ऐसा लगा जैसे अहसान भाई एक नाव है जो आत्माओं को इस भव सागर से पार कराकर परमात्मा से मिलाती है । न तो कभी सांसारिक रीति-रिवाज उसके रास्ते में दीवार बने और न ही कोई सांसारिक सोच उसके रास्ते आड़े आयी । उसका प्यार देवी से ऐसा था जैसे बेटे का माँ से ; एक भक्त का उसकी आराध्य देवी से । मुझे ऐसा लगा जैसे अहसान अली भक्तों की कतार में सबसे आगे खड़ा हो । सचमुच प्यार और भक्ति मानव मन की उपजी वो भावनाएँ हैं जो व्यक्ति की सोच पर निर्भर करती है, न कि उसके हिन्दू या मुसलमान होने पर ।
मुझे यह अहसास हुआ कि व्यक्ति की सोच काफी हद तक उसकी सांसारिक और भौतिक जरूरतों पर निर्भर करती है और ये जरूरतें काफी हद तक उसकी उन व्यक्तिगत इच्छाओं पर आधारित होती है जो उस वातावरण में पलती हैं जिसमें वह रहता है ।
और मैं माँ के दर्शन करके घर वापिस लौट आया ।
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Dr Pramod Kumar
Email: drpk1956@gmail.com
drpramod.kumar@yahoo.in
``शेरांवाली की जय, पहाड़ावाली की जय.......'' भक्तों की एक लम्बी कतार माँ की जय जयकार करती सीढ़ीयाँ चढ़ रही थी । माँ के भक्तों में औरतें, बच्चे, वृद्ध-सभी थे । सब के मन में माँ के दर्शन करने की लालसा थी ।
विवाहोपरांत दस वर्षों तक सन्तान सुख से वंचित रहने के कारण मैंने माँ वैष्णों देवी से सन्तान की याचना की थी । उनकी कृपा से सन्तान सुख प्राप्त होने पर मेरी बलवती इच्छा हुई कि उनके चरणों पर अपना शीष नवा आऊँ ।
मेरी यह वैष्णों देवी की पहली यात्रा थी । मेरे साथ मेरी पत्नी और एक साल की पुत्री थी । दो बैग भी थे जिनमें यात्रा के लिए जरूरी सामान भरा था । इन दो बैगों एवं बच्ची को लेकर दस-ग्यारह मील की सीधी ऊँचाई चढ़ना हमारे लिए बहुत ही मुश्किल था । मैं कुली के बारे में सोच ही रहा था तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया । उम्र 52-54 वर्ष, गोरा रंग और उस पर काला कमीज़ एवं पजामा पहने था । छोटी-छोटी सफेद दाढ़ी झुर्रियों वाले चेहरे पर भी अच्छी लग रही थी ।
उसने मेरे तरफ देखते हुए पूछा, ``साब, पिटठू चाहिए ?''
मैंने कहा, ``हाँ चाहिए, कितने पैसे लोगे ?''
वह बोला, ``साब, जो चाहो दे देना ।''
मैंने उसको देखते हुए पूछा, ``क्या ये दो बैग और इस बच्ची को लेकर चढ़ पाओगे ?''
उसने दोनों बैग मेरे हाथ से लेते हुए कहा, ``साब, सब ले चलूँगा । आपको कोई तकलीफ नहीं होगी । आप बिलकुल चिन्ता न करें ।'' उसने दोनों बैग कन्धों पर लटका लिए और बच्ची को अपने कन्धों पर बैठा लिया । हम सब धीरे-धीरे चढ़ने लगे ।
चारों तरफ हरे-हरे पेड़ थे । मैंने ऊँचाई की तरफ देखा । रास्ता ऊँचा और लम्बा था । यात्रा की बोरियत दूर करने के लिए मैं पिट्ठू से बातें करने लगा ।
``पिट्ठू, तुम्हारा नाम क्या है ?'' - मैंने उससे पूछा ?
``साब, मेरा नाम अहसान् अली है ।'' - उसने जवाब दिया ।
मुझे उसका नाम सुनकर आश्चर्य हुआ । मैंने तुरन्त पूछा, ' अरे, तुम तो मुसलमान हो ; फिर हिन्दुओं को मन्दिर ले जाने में सहायता क्यों करते हो ?''
उसने तुरन्त मेरी तरफ देखते हुए कहा, ``तो क्या हुआ साब, खुदा तो है ही न । उसके पास जाने के रास्ते अलग-अलग हैं । कोई पैगम्बर को मानता है और कोई माँ के दरबार को ।'' वह चलते-चलते बोलता रहा, ``सच बताऊँ साब, ये देवी माँ ही जो मुझे रोटी देती है । मेरे बच्चों को पालती है । मुझे पिट्ठू का काम करते हुए 40 साल हो गये है । मैं बचपन से यह काम कर रहा हूँ । शादी की । मकान बनाया । 6 बच्चों को पाला और उनकी शादियाँ की । सब माँ के आशिर्वाद से । माँ ने क्या नहीं दिया । मुझे सब कुछ तो दिया । वैष्णों माँ की कृपा से ही तो मुझे रोटी मिलती है । कभी किसी भक्त को माँ के दरबार ले जाता हूँ ; कभी किसी वृद्ध को उसके दर्शन कराने दरबार तक पहुँचाता हूँ । मुझे माँ के भक्तों की सहायता करने में बहुत अच्छा लगता है ।''
उसने कुछ रुककर फिर कहा,``मैं सच कहता हूँ साब, देवी मेरी माँ है । यही मुझे और मेरे परिवार को पालती है । माँ की कृपा से ही मेरे बच्चे कभी भूखे नहीं सोये ।''
मैं और मेरी पत्नी चलते-चलते थक गये थे । मैंने अहसान अली को रोकते हुए कहा, ``अहसान भाई ! जरा आराम कर लो । चलो थोड़ी-थोड़ी चाय पी जाए ।''
पास ही पत्थर के बैन्च बने थे। हमने बैग से थरमस निकाल कर तीन कपों में चाय डाली और पीने लगे। कुछ देर आराम करके हम फिर चलने लगे। मैं अहसान अली के बारे में कुछ और जानने के लिए उत्सुक था। मैंने पूछा, ``अहसान भाई, तुम 24 घण्टों में कितने चक्कर लगा लेते हो ?''
उसने जवाब दिया, ``साब, दिन में दो चक्कर लगा लेता हूँ । 150-200 रूपये की आमदनी हो जाती है ।''
मैंने फिर पूछा, ``अहसान तुम रहते कहाँ हो ।''
``साब यहीं कश्मीर में । यहाँ से पाँच कोस दूर मेरा गाँव है ।'' - उसने बताया ।
मैं और मेरी पत्नी, दोनों थक गए थे। लेकिन अहसान अली हमारा सामान और बच्ची को कन्धों पर बैठाए चला जा रहा था। उसे न तो कोई थकान महसूस हो रही थी और न ही कोई परेशानी। हमारे आगे-पीछे बहुत से लोग चले जा रहे थे। सभी माँ की जय-जयकार कर रहे थे । तभी मैंने देखा दो पिट्ठू एक बुजुर्ग को पालकी में बैठा कर चले जा रहे हैं । एक भक्त जमीन पर लेट-लेट कर माँ के दरबार की तरफ जा रहा था ।
मैंने यह सब देखकर अहसान अली से कहा, ``अहसान भाई, माँ में लोगों की बड़ी श्रद्धा है ।''
अहसान अली कहने लगे, ``साब, देवी माँ के दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते हैं । चाहे गरीब हो या अमीर माँ हर इन्सान की मन्नत पूरी करती है । हर भक्त के दुखों को दूर करती है । उसके दरबार में आने वाले सब उसके बच्चे हैं चाहे वह किसी जाति, धर्म और देश का हो । माँ की निगाह में सब बराबर हैं ।''
तभी माँ का दरबार आ गया । मैंने अहसान अली से कहा, ``अहसान भाई, तुम रूको, हम अभी माँ के दर्शन करके आते हैं । फिर साथ खाना खायेंगे ।''
अहसान अली ने कहा, ``मैं भी आप के साथ माँ के दर्शन करने चलूँगा ।''
"अरे भाई तुम मुसलमान हो और मुसलमान मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते।'' - मैंने कहा ।
अहसान अली ने कुछ गुस्से में कहा, ``साब, देवी माँ मूर्ति नहीं है । वह हमारी माँ है । माँ जो बच्चों को पालती है, खाना देती है । माँ कहीं मूर्ति होती है । देवी माँ को मूर्ति कहकर, माँ का अपमान मत करो।''
अहसान अली के मुख से इन शब्दों को सुनकर मैं चौंक सा गया । मुझे लगा अहसान अली ही देवी माँ का सच्चा भक्त है । वह पिछले 40 सालों से खुद ही माँ के दर्शन नहीं करता रहा बल्कि हजारों भक्तों को भी माँ के दरबार पहुँचाने में मदद करता रहा है । मुझे ऐसा लगा जैसे अहसान भाई एक नाव है जो आत्माओं को इस भव सागर से पार कराकर परमात्मा से मिलाती है । न तो कभी सांसारिक रीति-रिवाज उसके रास्ते में दीवार बने और न ही कोई सांसारिक सोच उसके रास्ते आड़े आयी । उसका प्यार देवी से ऐसा था जैसे बेटे का माँ से ; एक भक्त का उसकी आराध्य देवी से । मुझे ऐसा लगा जैसे अहसान अली भक्तों की कतार में सबसे आगे खड़ा हो । सचमुच प्यार और भक्ति मानव मन की उपजी वो भावनाएँ हैं जो व्यक्ति की सोच पर निर्भर करती है, न कि उसके हिन्दू या मुसलमान होने पर ।
मुझे यह अहसास हुआ कि व्यक्ति की सोच काफी हद तक उसकी सांसारिक और भौतिक जरूरतों पर निर्भर करती है और ये जरूरतें काफी हद तक उसकी उन व्यक्तिगत इच्छाओं पर आधारित होती है जो उस वातावरण में पलती हैं जिसमें वह रहता है ।
और मैं माँ के दर्शन करके घर वापिस लौट आया ।
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Dr Pramod Kumar
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