Friday, March 25, 2011

फैसला-ड़ा प्रमोद कुमार

फैसला-ड़ा प्रमोद कुमार





आज देवेन और ऊषा की शादी हुए पूरे 21 वर्ष गुज़र चुके हैं । हर साल बहार का मौसम आकर चला गया लेकिन इनके आँगन में न तो कोई फूल खिल सका और न ही कोई कली मुस्करा पाई । देवेन और ऊषा का आँगन सूना ही रहा । पतझड़ की तरह सूखा सा। न तो इसमें किसी बच्चे की किलकारी गूँजी और न कोई चहचहाट। बच्चा होने की आस में 21 बहारें पतझड़ बन गई । जाने कितने डॉक्टरों से इलाज कराया लेकिन कोई फायदा नही हुआ । कोई मज्रार नही बची जहाँ जाकर इन्होने मन्नत न माँगी हो । यहाँ तक ओघड़ बाबाओं के चक्कर भी लगाए लेकिन सब बेकार। देवेन तो दिन ऑफिस में गुजार देता लेकिन ऊषा सारे दिन घर में अकेली पड़ी रहती । अब तो ऊषा को घर एक वीरान कब्रिस्तान सा लगने लगा ।

हर साल देवेन शादी की वर्षगाँठ पर दफ्तर से छुट्टी ले लिया करता । आज भी वह छुट्टी पर है । हर साल की तरह आज भी दोनों अनाथालय जायेंगे और अनाथ बच्चों को कपड़े और मिठाई बाँटेंगे ।


''ऊषा जल्दी तैयार हो जाओ । आज हम अनाथालय तो जायेंगे ही लेकिन उसके बाद पण्डित दीनानाथ जी के यहाँ होकर आयेंगे । पण्डित जी पापा के पुराने दोस्त हैं । अच्छे आदमी हैं । एक अच्छे ज्योतिषी भी हैं । हाँ, जन्मपत्रियाँ रख लेना । पण्डित जी को दिखानी हैं ।'' - देवेन ने ऊषा से कहा ।


ऊषा ने ``जी अच्छा'' कहते हुए जाने की तैयारी शुरू कर दी ।

अनाथालय पहुँचकर उन्होने सब बच्चों को कपड़े और मिठाईयाँ बाँटी । ऊषा की आँखें नम थी । वह अनाथालय के बच्चों को देखकर मन ही मन सोच रही थी, ``भगवान की कैसी माया है । एक तरफ बच्चें है जो ममता को तरस रहे हैं और दूसरी ओर हम हैं जो वात्सल्य पाने को बेवश हैं । बच्चे मौजूद हैं और माँ-बाप की तरह हम भी । लेकिन दोनों के बीच एक गहरी खाई है । अपनेपन की खाई । हम इनको अपना बच्चा नही मान सकते क्योंकि हमने इन्हें पैदा नही किया और दूसरी तरफ ये बच्चें हमें माँ-बाप नही कह सकते क्योंकि ये हमारी औलादें नही हैं ।''


अनाथालय में बहुत से बेऔलाद व्यत्ति इन बच्चों को मिठाई, कपड़े आदि बाँटने आते रहते हैं । शायद ऐसा करने से उनको कुछ मानसिक संतुष्टि मिलती होगी । हो सकता है उन्हें यह महसूस होता हो कि इन अनाथ बच्चों को कुछ देने से भगवान उनकी सुन लेगा और उन्हे औलाद नवाज़ देगा । लेकिन यह सच्चाई है कि उनके इस देने में दान की भावना कम और अपना स्वार्थ अधिक होता है । ऐसा न होता तो ये लोग इन बच्चों को मिठाई नही ममता देते । कपड़े नहीं माँ-बाप का प्यार देते । जिसकी उनको सख्त जरूरत हैं । लेकिन सभी कुछ देर ठहरते है । मिठाइयाँ, कपड़े आदि बाँटते है और अपने घर चले जाते हैं । कोई इन्हें गोद लेने की ज़हमत तक नही उठाता । शायद विरला ही इन्सान यहाँ से बच्चा गोद लेता होगा ।


ऐसा नही था कि देवेन यह सब न समझता हो । देवेन के मन में भी कई बार आया कि वह किसी अनाथ बच्चे को अपना ले । लेकिन उसके मन में जो अपनेपन की चाह थी वह उसे ऐसा करने के लिए रोक लेती । ... ``नहीं नहीं, ये मेरे अपने थोड़े ही हैं । अपना खून अपना ही होता है ।''


अनाथालय के बाद दोनों पण्डित दीनानाथ के घर की ओर चल दिए । वहाँ पहुँचकर ऊषा ने जन्मपत्रियाँ पण्डित जी को देते हुए कहा-``पण्डित जी, कृपया बताएँ हमारी कुण्डलियों में सन्तान-योग है कि नहीं ?''


पण्डित दीनानाथ जन्मपत्रियाँ देखते-देखते कुछ गम्भीर हो गए । कुछ सोचने लगे । कुछ देर बाद बोले, ``क्रूर राहु की पंचम दृष्टि चन्द्रमा को खा रही है । पाँचवाँ स्थान सन्तान का होता है जहाँ चन्द्रमा बैठा है जिस पर राहु की बुरी दृष्टि पड़ रही हैं । चन्द्रमा की कर्क राशि भी राहु के प्रभाव में है क्योंकि राहु अपनी सप्तम दृष्टि से उसे देख रहा है । शनि वृक्री है । बृहस्पति कुण्डली में नीच का बैठा है । शुक्र अस्त है । तुम्हारी राहु की महादशा में शनि ऱन्न् अन्तर चल रहा है । गोचर में भी शुभ ग्रहों का कोई योग नही है । और इस कुण्डली में शनि की साढ़ साती भी चल रही है । देवेन, अभी कोई सन्तान योग नही है ।''


पण्डित जी की बातें सुनकर देवेन और ऊषा के चेहरों पर उदासी छा गई । ``क्या हमारे कभी बच्चा होगा ? '' - देवेन ने दुखी मन से पूछा ।


पण्डित दीनानाथ चुपचाप देवेन की आँखों में झाँकने लगे । कुछ देर बाद पण्डित जी अपनी कुर्सी से उठे और अपने बेटे को बुलाने लगे- ``बेटे रामभक्त ! जरा तीन चाय तो लाना ।''


देवेन पण्डित दीनानाथ को बचपन से जानता था । देवेन के पिता जी कभी-कभी उसे साथ ले पण्डित जी के यहाँ पत्री बचवाने आते थे । तभी वह पण्डित जी के लड़के से मिला था । ``लेकिन उसका नाम तो रमेश था । रमेश का नाम रामभक्त कैसे हो गया । ''-देवेन सोचने लगा ।


तभी रामभक्त चाय ले आया । उसने पहले हमें नमस्कार किया और फिर चाय के कप हमारे सामने रख दिए । चपटी नाक, श्यामल लेकिन तंदरूस्त शरीर और नाटा कद । देवेन सोच में पड़ गया-``रमेश तो गोरा चिट्टा, तीखे नयन-नक्श वाला लम्बा लड़का था । रामभत्त रमेश नही हो सकता ।''


पण्डित दीनानाथ कुर्सी पर बैठते हुए बोले- ``चाय लीजिए ।''

पण्डित जी ने चाय पीते हुए कहा, '' देवेन बेटे ! भगवान की माया भगवान ही जाने । उसकी मन की बात हम मनुष्य नही जान सकते । हम तो उसके द्वारा रची गई सृष्टि के चलन से बस कुछ अन्दाजा लगा सकते है । इन ग्रह नक्षत्रों को पढ़कर केवल कुछ हिसाब ही लगा सकते हैं । भगवान तो बन नही सकते । उसके मन की इच्छा यह तुच्छ मानव मस्तिष्क नहीं जान सकता । तुम जानते हो मेरा एक ही लड़का था । पण्डिताईन उसे दो साल का छोड़ कर स्वर्ग सिधार गई थी । मैंने उसे बड़े प्यार से पाला था । उसे ऊँची पढ़ाई करने के लिए विलायत भेजा । लेकिन वह वहीं बस गया । वहीं एक मेम से शादी कर ली । अपने बुढ़े बाप को अकेले छोड़ गया । पिछले छः साल से उसका चेहरा तक नहीं देखा है । यही रामभक्त है जो मेरी सेवा करता है । अपना खून तो पराया निकला और पराया अपने खून से ज्यादा अपना निकला ।''

मैंने बीच में ही टोकते हुए पूछा, ``पण्डित जी यह रामभक्त कौन है ?''

पण्डित जी ने गम्भीर होते हुए कहा-``देवेन, शायद तुम्हें याद हो । एक औरत हमारे यहाँ काम करती थी जिसका पति शराब बहुत पीता था और इसी कारण वह मर गया था । ये उसी औरत का लड़का है । उस औरत ने हमारी बहुत सेवा की थी । रमेश को भी बचपन से उसी औरत ने सम्भाला था । और यह रामभक्त भी हमेशा रमेश की सेवा में लगा रहता था । रामभक्त सच्चे मन से हमारी इतनी सेवा करता रहा कि कभी स्कूल भी नहीं जा पाया । उस कमबख्त रमेश को जो सफलता मिली है वह रामभत्त की सेवा का ही नतीजा है । अब तुम ही बताओ मेरा बेटा कौन हुआ रमेश या यह रामभक्त ?''

मैंने फिर पूछा, ``लेकिन वह औरत तो नीच जाति की थी ।''

पण्डित जी कहने लगे-``देवेन जात-पात तो इन्सान ने बनाई हैं । सबसे बड़ा रिश्ता तो प्यार और सेवा का होता है, ईमानदारी और विश्वास होता है । भगवान ने तो कभी जात नही बनाई । रमेश मेरे घर पैदा होने से ब्राह्मण नही हो गया । उसके करतूत तो राक्षसों वाले हैं । वह वहाँ शराब पीता है । माँस खाता है । जाने क्या-क्या बुरे कार्य करता है । देवेन, व्यत्ति अपने विचारों, अपने कार्यों एवं अपनी प्रवृतियों से अच्छा या बुरा बनता है । अपनेपन का रिश्ता खून से नही होता बल्कि अपनत्व की उन भावनाओं को अपनाने से होता है जिनका आधार प्यार, इंसानियत, सेवा एवं दूसरे के प्रति ईमानदारी है । रामभक्त की माँ हमारी सेवा करती-करती मर गई और उस बेचारी का यह लड़का आज तक हमारी निस्वार्थ सेवा कर रहा है ।''


देवेन पण्डित जी की बातें सुनकर चुप हो गया । दोनों पण्डित जी से नमस्कार कर वृद्धाश्रम की ओर चल दिए । वृद्धाश्रम में कुल नौ वृद्ध रहते थे । सभी की उम्र 65 से 85 के बीच थी । देवेन और ऊषा ने सभी नौ वृद्धों से बातें की । सभी को फल बाँटे । हर वृद्ध ने अपनी दुख भरी दास्तान सुनाई । एक वृद्ध कहने लगा-``मेरे तीन बेटे हैं । सभी शादीशुदा, लेकिन कोई भी मुझे अपने पास रखने को राज़ी नही हैं । सभी मुझे फालतू चीज समझते हैं ।'' एक दूसरे वृद्ध ने बताया-``मेरी बहू मेरी बहुत बेइज्जती करती थी । मेरे साथ कुत्ते से भी बदतर सलूक करती थी । नालायक लड़का जोरू का गुलाम था । तंग आकर मैं यहाँ आ गया ।'' कुछ ऐसे ही किस्से दूसरे वृद्धों ने भी सुनाए । यह सब सुनकर देवेन और ऊषा बहुत दुखी हुए । भारी मन के साथ दोनों घर आ गए ।


सोफे पर बैठा देवेन सोचने लगा-``संसार में हर प्राणी दुखी है । कोई पाकर दुखी है और कोई न पाने की वजह से दुखी है । हम सब परायों को नकारते रहते हैं लेकिन जिन्हें हम अपना समझते हैं दुख तो वही ज्यादा देते हैं। खून का रिश्ता होने से कोई भी अपना नही हो जाता । अपना वो होता है जो अपनत्व का अहसास जगाता है । चाहे वह पराया ही क्यों न हो । यह सही है कि सांसारिक इच्छाएँ दुख का कारण बनती हैं । लेकिन सभी इच्छाएँ दुख का कारण नही बनती । इच्छाएँ जब पूर्ण होती है तो सुख का अहसास भी होता है । हाँ, अपूर्ण इच्छाएँ एवं अधूरी लालसाएँ दुख का कारण जरूर बनती हैं । इसलिए हमें या तो इच्छाएँ रखनी नही चाहिए और यदि रखी हैं तो उन्हें पाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए ।''

देवेन ने तभी मन ही मन एक फैसला किया । उसने ऊषा को अपने पास बुलाया और कहा-''ऊषा, हम एक बच्चा गोद लेंगे ।''

बच्चा गोद लेने की बात सुनते ही ऊषा का चेहरा खिल उठा । वह बस इतना कह पाई - ``सच'' ।

और दोनों सपनों के संसार में खो गये ।
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Dr Pramod Kumar

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