गिरधर की मौत- डा. प्रमोद कुमार
गिरधर को रिटायर हुए आज पूरा एक साल हो चुका है । आज के दिन ही 31 जुलाई को पिछले साल वह रिटायर हुआ था । मेरे साथ ही वह एक सहायक यातायात अधिकारी के रूप में कार्य करता था । जब भी मैं छुट्टी जाता वह मेरी सीट का काम भी देखा करता था । बेशक, मैं उसका वरिष्ठ अधिकारी था लेकिन मैंने कभी उससे एक वरिष्ठ अधिकारी की तरह व्यवहार नहीं किया बल्कि हमेशा उसे अपना एक सहकर्मी दोस्त समझा । हम हमेशा साथ-साथ लंच करते और बाद में नीचे कुछ समय घूमने भी जाते ।
मुझे आज भी याद है वह घटना जब हम दोनों एक छोटी-सी दुकान पर केले खा रहे थे । उस दुकान का मालिक एक 80 साल का बुजुर्ग था। उसकी सहायता उसी का एक 50-52 साल का लड़का करता था । लड़का केले काटकर उनमें नमक लगाता और ग्राहकों को देता था ।
लेकिन उस दिन वही लड़का अपने बूढ़े बाप को छुरा दिखाकर कह रहा था, ``ए बापू। तू अब बूढ़ा हो गया है । यह दुकान मेरे पास कर दे । मैंने तेरी बहुत सेवा की हैं । देख, यदि तूने यह दुकान बड़े भाई को दी तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा ।''
मुझे एक बेटे का इस तरह अपने बुढ़े बाप से व्यवहार करना बिल्कुल पसन्द नहीं आया था । मैंने तुरंत उस बूढ़े के लड़के को धमकाते हुए कहा था, ``अरे, रामलाल तुम्हें शर्म नहीं आती । इस छोटी-सी दुकान के लिए तुम अपने बाप को छुरा दिखाते हो । छी-छी.....।''
रामलाल ने तुरन्त जबाब दिया था, ``बाबुजी, आप बाप-बेटे के बीच में मत बोलिए । ये बूढ़ा सठिया गया है । क्या इस दुकान को साथ ले जाएगा । कब्र में पैर लटके हैं लेकिन जायदाद का मोह अभी भी नहीं छोड़ता।''
मैं तब चुप हो गया था । शायद बाप-बेटे के बीच ज्यादा बोलना अच्छा नहीं समझा था । लेकिन वहां से वापस जाते हुए मैंने गिरधर को जरूर समझाया था, ``देखा गिरधर ! यही जायदाद उस बुज़ुर्ग की दुश्मन बन गई है । इसी जायदाद की वजह से उसके अपने परायों जैसा व्यवहार कर रहे हैं ।''
गिरधर ने मेरी बातें सूनकर कुछ हंसकर कहा था, ``नहीं दिवाकर, पैसा ही सब कुछ है । पैसा होने पर पराये भी अपने हो जाते हैं । जायदाद हो तो व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है । बच्चे अपना खून होते हैं । अपना खून कभी अपने खून का कत्ल नहीं करता । यह रामलाल अपने बाप को डरा रहा था । उसे मारने के लिए छुरा थोड़े ही दिखा रहा था ।'' गिरधर को इस विषय में मनाना बहुत ही कठिन था । मैं चुप हो गया ।
आज मुझको उसकी बहुत याद आ रही थी । मैंने सोचा क्यों न उससे मिलने उसके घर चला जाये । और मैं फरीदाबाद जाने वाली बस में बैठ गया । बस चलने लगी और मैं गिरधर की यादों में खो गया ।
गिरधर बहुत की कंजूस व्यक्ति रहा है । जिंदगी भर एक-एक पाई जोड़ता रहा । कभी एक पैसा अपने ऊपर खर्च नहीं किया । उसके कपड़े भी अज़ीबोगरीब किस्म के होते थे । बाद में मुझे पता चला था कि यह पुरानी पैंट-कमीज कबाड़ी बाजार से लाकर पहनता था क्योंकि वहाँ उसे वे चीजें रद्दी के भाव मिल जाती थी । कभी उसने अपने पैसे से चाय तक नहीं पी। जब भी मेरे साथ लंच में बाहर गया, पैसे का भुगतान मैंने ही किया । ऐसे ही एक-एक पैसा जोड़कर उसने फरीदाबाद में एक कोठी बनवा डाली । उसके दो बच्चे हैं । दोनों की शादियां उसने नौकरी में रहते ही कर दी थी लेकिन वे कहीं नौकरी में नहीं लग पाए थे ।
बस ने उसके मकान के पास ही उतार दिया । गिरधर का मकान मुख्य सड़क के पास ही था । मेंने घ्ंाटी बजाई । घर से एक जवान औरत निकलकर आई । मैंने उससे पूछा, ``गिरधर जी हैं ?''
औरत ने गुस्से में कहा 'हां हैं । इस घर को थोड़े ही छोड़ेंगे । मरने पर इसे अपने साथ ले जाएंगे ।'
शायद यह औरत गिरधर के किसी एक लड़के की पत्नी थी । मुझे उसकी बातें सुनकर बुरा लगा । लेकिन मैं उसे कुछ कह नहीं पाया । मैं चुपचाप घर के अन्दर दाखिल होने लगा । लेकिन बाहर वाले कमरे में ही मैंने गिरधर को बैठे पाया । यह कमरा पूरी कोठी से अलग था । शायद नौकरों के रहने के लिए बनाया गया था । कमरा बहुत छोटा था । एक चारपाई और टूटी सी मेज-कुर्सी पड़ी थी । गिरधर ने उठकर बहुत खुशी से हाथ मिलाते हुए कहा, ``अरे भाई, दिवाकर क्या हाल है ? बहुत अच्छा लगा, तुम्हें मिलकर । बैठो ।'' ऐसा कहते हुए उसने कुर्सी मेरी तरफ कर दी ।
मैंने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ``तुमने ये क्या हाल बना रखा है ? ठीक तो है ?''
``हा भाई, बस ठीक ही हूं । अभी मैं तुम्हारे लिए चाय बनाता हूं ।'' और ऐसा कहकर गिरधर स्टोव जलाने लगा । चाय तैयार कर गिरधर ने चाय का एक प्याला मुझे पकड़ाया और एक खूद उठा लिया ।
मैंने चाय का एक घूंट पीया और गिरधर की तरफ देखकर गुस्से में कहा, ``ये सब क्या है ? ये मकान तो तुम्हारा है । तुम अपने ही मकान के सरवेंट क्वार्टर में अकेले पड़े हो । तुम्हारे दो-दो जवान लड़के हैं - बहुएं हैं । किस चीज की कमी है तुम्हें ? क्या बात है ?''
गिरधर पहले तो कुछ देर संकोचवश चुप रहा । फिर कहने लगा, ``दिवाकर भाई ! तुम तो जानते हो मैंने कभी अपने लिए नहीं जीया । एक-एक पैसा बचाकर 500 गज में यह बड़ा मकान बनवाया । यहां तक कि रिश्वत का पैसा भी मैने सब इसी मकान में लगा दिया । मैं खुद रूखा-सूखा खाता रहा लेकिन अपने बच्चों को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी । बच्चों को हर सुविधा दी । लेकिन यही बच्चे एवं मकान जिनके लिए मैंने जिंदगी के सुनहरे दिन कुरबान कर दिये, आज मेरे ही दुश्मन बन गये हैं । जो भी ग्रेच्युटी व भविष्य निधि का पैसा मुझे मिला था, बच्चों ने सब बर्बाद कर दिया ।''
`लेकिन तुमने वह पैसा बच्चों को दिया ही क्यों? मैंने बीच में ही पूछा ।
गिरधर ने रूआंसे-से अन्दाज में कहा, ``मैं पहले नहीं दे रहा था लेकिन बेटों एवं बहुओं ने मुझे प्यार से फुसलाकर सब पैसा ले लिया । क्या करता । दोनों नालायक थे । कुछ काम तो करते नहीं थे । मैंने सोचा शायद कुछ कमाने लगेंगे ।''
``अरे, तुम्हें तो लगभग सात लाख मिला था । कहां गया सब पैसा - मैंने पूछा।''
``पहले-पहले बहुओं एवं बेटों ने बड़ा प्यार जताया । कहने लगे - पिताजी ! हम एक प्लास्टिक के डिब्बे बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं । एक फैक्ट्री बहुत ही सस्ते दामों पर मिल रही है । केवल सात लाख में । फैक्ट्री आप के नाम ही लेंगे । हम उसे चला लेंगे । आप केवल सात लाख दे दीजिए ।''
गिरधर कुछ देर चुप रहकर फिर बोलने लगे - ``और मैंने फैक्ट्री खरीद ली । बच्चे निकम्मे व अय्याश निकले । सब डुबो दिया । फैक्ट्री तो चला नहीं पाए ऊपर से चार लाख का कर्ज और ले लिया । कर्ज चुकाने के लिए फैक्ट्री को बेचना पड़ा । सब पैसा लूट गया । अब बच्चे मकान को बेचने की जिद कर रहे हैं । मेरी कोई इज्जत नहीं करते बल्कि उल्टा-सीधा सुना और देते हैं । सारे घर में खुद मजे से रहते हैं और मुझे नौकरों वाले इस कमरे में डाल दिया है । मैं बूढ़ा हूं । दिल का मरीज हूं । मेरे मरने का इंतजार करते हैं ये नालायक ।'' ऐसा कहकर गिरधर सुबक-सुबककर रोने लगा ।
मुझे गिरधर की दयनीय हालत देखकर बहुत दु:ख हुआ । गिरधर के बच्चे जवान थे । दूसरा मैं एक बाहर का व्यक्ति था । इसलिए मेरा इन बच्चों को कुछ भी कहना ठीक नहीं था । लेकिन मुझसे रहा नहीं गया। पहले मैंने गिरधर पर गुस्सा उतारा, ``अरे बेवकूफ, तूने इन नालायकों को पैसा दिया ही क्यों ? कभी केवल पैसे से व्यापार नहीं किया जाता । पैसे कमाने के लिए अच्छा व्यापारी होना जरूरी होता है । तू भी कितना बड़ा मुर्ख था जो सारी जिंदगी इन बच्चों के लिए जोड़ता रहा । तूने क्या-क्या गलत काम नहीं किये । रिश्वत ली, बेईमानी की । इन बच्चों के लिए ? तुमने अपने लिए तो कभी जिया ही नहीं । अरे इतना तो समझता कि यदि बच्चे अच्छे हों तो खूद कमा लेते हैं और यदि निकम्मे और आवारा हो तो सब उजाड़ देते हैं । चाहे कितनी भी दुनिया भर की दौलत उनके लिए छोड़ जाओ । क्या मिला तुझे ?''
मैं गुस्से से लाल-पीला था । मैंने तुरन्त उसके दोनों बेटों को बुलाया और उन्हें फटकारने लगा, ``अरे, तुम लोगों को शर्म आनी चाहिए । तुम्हारी मां बचपन में ही मर गई थी । इसी तुम्हारे बाप ने तुम्हें पाला-पोसा । क्या-क्या नहीं किया तुम लोगों के लिए । यह मकान बनवाया । सब सुख सुविधाएं दीं और तुम हो कि अपने बुढ़े बाप को इस तरह रख रहे हो । ये मकान, फ्रिज, टी.वी. इस घर की हरेक चीज अभी गिरधर की है । ध्यान से सुन लो । एक पूरा कमरा गिरधर के लिए खाली कर दो । और यदि तुम्हें यहां रहना है तो गिरधर को 1000 रूपये महीना किराया देना होगा । यदि किराया नहीं दे सकते तो इस महान को खाली कर दो । हम इसे किसी और को किराये पर दे देंगे । यदि भविष्य में कभी अपने बाप को परेशान किया तो पुलिस की सहायता से तुम सबको यहां से बाहर कर दूंगा । यदि तुम बाप को बाप नहीं समझ सकते तो बाप के लिए कोई बेटा, बेटा नहीं । समझ गए तुम सब ।''
गिरधर बीच-बीच में मुझे रोक रहा था, ``अरे दिवाकर मरने दो नालायकों को । हैं तो मेरे बच्चे ही। छोड़ो, जाने दो ।''
मुझे गुस्सा आ रहा था, ``कैसे छोड़ दूं । मुझसे तुम्हारी यह हालत देखी नहीं जाती । चलो तुम मेरे घर । मेरे साथ रहना ।''
``दिवाकर तुम बहुत अच्छे हो । मैंने तुम्हें भी बहुत धोका दिया । तुमसे छुप-छुपकर मैं रिश्वत लेता रहता था । लेकिन तुम हमेशा ईमानदार रहे और आज मेरे जैसे बुरे आदमी से भी दोस्ती का हक अदा कर रहे हो । मुझे माफ़ करना दिवाकर ।'' ऐसा कहकर गिरधर गर्दन नीची करके अपने आंसू पोंछने लगा ।
मैंने फिर कहा, ``चलो, मेरे साथ दिल्ली । मेरे घर । मेरे साथ रहना ।''
गिरधर ने हाथ जोड़कर कहा, ``बहुत-बहुत मेहरबानी भाई । अब मैं इस उम्र में बच्चों को छोड़कर कहां जाउं€गा । मैं यहीं ठीक हूं ।''
``तुम्हारी मरजी ! अच्छा ये कुछ रूपये रख लो ! मुसीबत में काम आएंगे'' - और मेंने 5000 रुपये ज़बरदस्ती गिरधर की जेब में डाल दिये ।
``और सुनो! मेरे घर मे दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले हैं । कभी परेशानी हो तो दिल्ली आ जाना।'' - ऐसा कहकर मैंने गिरधर से हाथ मिलाया और बस पकड़कर अपने घर आ गया ।
इस बात को लगभग पांच महीने ही गुज़रे थे कि एक सुबह मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी, ``फरीदाबाद । गिरधर नाम के एक वृध्द को गला घोंटकर उसी के लड़कों ने मार डाला । पुलिस के अधिकारी ने बताया कि वृध्द का कत्ल जायदाद के लिए किया गया था ।''
यह खबर पढ़कर मुझे अत्यत दु:ख हुआ ।
मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ``गिरधर तो वर्षो पहले मर चुका था । लेकिन आज गिरधर की उन भावनाओं एवं मूल्यों की मौत हुई है जिन्हें वह जिंदगी भर जीता रहा ।''
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गिरधर को रिटायर हुए आज पूरा एक साल हो चुका है । आज के दिन ही 31 जुलाई को पिछले साल वह रिटायर हुआ था । मेरे साथ ही वह एक सहायक यातायात अधिकारी के रूप में कार्य करता था । जब भी मैं छुट्टी जाता वह मेरी सीट का काम भी देखा करता था । बेशक, मैं उसका वरिष्ठ अधिकारी था लेकिन मैंने कभी उससे एक वरिष्ठ अधिकारी की तरह व्यवहार नहीं किया बल्कि हमेशा उसे अपना एक सहकर्मी दोस्त समझा । हम हमेशा साथ-साथ लंच करते और बाद में नीचे कुछ समय घूमने भी जाते ।
मुझे आज भी याद है वह घटना जब हम दोनों एक छोटी-सी दुकान पर केले खा रहे थे । उस दुकान का मालिक एक 80 साल का बुजुर्ग था। उसकी सहायता उसी का एक 50-52 साल का लड़का करता था । लड़का केले काटकर उनमें नमक लगाता और ग्राहकों को देता था ।
लेकिन उस दिन वही लड़का अपने बूढ़े बाप को छुरा दिखाकर कह रहा था, ``ए बापू। तू अब बूढ़ा हो गया है । यह दुकान मेरे पास कर दे । मैंने तेरी बहुत सेवा की हैं । देख, यदि तूने यह दुकान बड़े भाई को दी तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा ।''
मुझे एक बेटे का इस तरह अपने बुढ़े बाप से व्यवहार करना बिल्कुल पसन्द नहीं आया था । मैंने तुरंत उस बूढ़े के लड़के को धमकाते हुए कहा था, ``अरे, रामलाल तुम्हें शर्म नहीं आती । इस छोटी-सी दुकान के लिए तुम अपने बाप को छुरा दिखाते हो । छी-छी.....।''
रामलाल ने तुरन्त जबाब दिया था, ``बाबुजी, आप बाप-बेटे के बीच में मत बोलिए । ये बूढ़ा सठिया गया है । क्या इस दुकान को साथ ले जाएगा । कब्र में पैर लटके हैं लेकिन जायदाद का मोह अभी भी नहीं छोड़ता।''
मैं तब चुप हो गया था । शायद बाप-बेटे के बीच ज्यादा बोलना अच्छा नहीं समझा था । लेकिन वहां से वापस जाते हुए मैंने गिरधर को जरूर समझाया था, ``देखा गिरधर ! यही जायदाद उस बुज़ुर्ग की दुश्मन बन गई है । इसी जायदाद की वजह से उसके अपने परायों जैसा व्यवहार कर रहे हैं ।''
गिरधर ने मेरी बातें सूनकर कुछ हंसकर कहा था, ``नहीं दिवाकर, पैसा ही सब कुछ है । पैसा होने पर पराये भी अपने हो जाते हैं । जायदाद हो तो व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है । बच्चे अपना खून होते हैं । अपना खून कभी अपने खून का कत्ल नहीं करता । यह रामलाल अपने बाप को डरा रहा था । उसे मारने के लिए छुरा थोड़े ही दिखा रहा था ।'' गिरधर को इस विषय में मनाना बहुत ही कठिन था । मैं चुप हो गया ।
आज मुझको उसकी बहुत याद आ रही थी । मैंने सोचा क्यों न उससे मिलने उसके घर चला जाये । और मैं फरीदाबाद जाने वाली बस में बैठ गया । बस चलने लगी और मैं गिरधर की यादों में खो गया ।
गिरधर बहुत की कंजूस व्यक्ति रहा है । जिंदगी भर एक-एक पाई जोड़ता रहा । कभी एक पैसा अपने ऊपर खर्च नहीं किया । उसके कपड़े भी अज़ीबोगरीब किस्म के होते थे । बाद में मुझे पता चला था कि यह पुरानी पैंट-कमीज कबाड़ी बाजार से लाकर पहनता था क्योंकि वहाँ उसे वे चीजें रद्दी के भाव मिल जाती थी । कभी उसने अपने पैसे से चाय तक नहीं पी। जब भी मेरे साथ लंच में बाहर गया, पैसे का भुगतान मैंने ही किया । ऐसे ही एक-एक पैसा जोड़कर उसने फरीदाबाद में एक कोठी बनवा डाली । उसके दो बच्चे हैं । दोनों की शादियां उसने नौकरी में रहते ही कर दी थी लेकिन वे कहीं नौकरी में नहीं लग पाए थे ।
बस ने उसके मकान के पास ही उतार दिया । गिरधर का मकान मुख्य सड़क के पास ही था । मेंने घ्ंाटी बजाई । घर से एक जवान औरत निकलकर आई । मैंने उससे पूछा, ``गिरधर जी हैं ?''
औरत ने गुस्से में कहा 'हां हैं । इस घर को थोड़े ही छोड़ेंगे । मरने पर इसे अपने साथ ले जाएंगे ।'
शायद यह औरत गिरधर के किसी एक लड़के की पत्नी थी । मुझे उसकी बातें सुनकर बुरा लगा । लेकिन मैं उसे कुछ कह नहीं पाया । मैं चुपचाप घर के अन्दर दाखिल होने लगा । लेकिन बाहर वाले कमरे में ही मैंने गिरधर को बैठे पाया । यह कमरा पूरी कोठी से अलग था । शायद नौकरों के रहने के लिए बनाया गया था । कमरा बहुत छोटा था । एक चारपाई और टूटी सी मेज-कुर्सी पड़ी थी । गिरधर ने उठकर बहुत खुशी से हाथ मिलाते हुए कहा, ``अरे भाई, दिवाकर क्या हाल है ? बहुत अच्छा लगा, तुम्हें मिलकर । बैठो ।'' ऐसा कहते हुए उसने कुर्सी मेरी तरफ कर दी ।
मैंने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ``तुमने ये क्या हाल बना रखा है ? ठीक तो है ?''
``हा भाई, बस ठीक ही हूं । अभी मैं तुम्हारे लिए चाय बनाता हूं ।'' और ऐसा कहकर गिरधर स्टोव जलाने लगा । चाय तैयार कर गिरधर ने चाय का एक प्याला मुझे पकड़ाया और एक खूद उठा लिया ।
मैंने चाय का एक घूंट पीया और गिरधर की तरफ देखकर गुस्से में कहा, ``ये सब क्या है ? ये मकान तो तुम्हारा है । तुम अपने ही मकान के सरवेंट क्वार्टर में अकेले पड़े हो । तुम्हारे दो-दो जवान लड़के हैं - बहुएं हैं । किस चीज की कमी है तुम्हें ? क्या बात है ?''
गिरधर पहले तो कुछ देर संकोचवश चुप रहा । फिर कहने लगा, ``दिवाकर भाई ! तुम तो जानते हो मैंने कभी अपने लिए नहीं जीया । एक-एक पैसा बचाकर 500 गज में यह बड़ा मकान बनवाया । यहां तक कि रिश्वत का पैसा भी मैने सब इसी मकान में लगा दिया । मैं खुद रूखा-सूखा खाता रहा लेकिन अपने बच्चों को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी । बच्चों को हर सुविधा दी । लेकिन यही बच्चे एवं मकान जिनके लिए मैंने जिंदगी के सुनहरे दिन कुरबान कर दिये, आज मेरे ही दुश्मन बन गये हैं । जो भी ग्रेच्युटी व भविष्य निधि का पैसा मुझे मिला था, बच्चों ने सब बर्बाद कर दिया ।''
`लेकिन तुमने वह पैसा बच्चों को दिया ही क्यों? मैंने बीच में ही पूछा ।
गिरधर ने रूआंसे-से अन्दाज में कहा, ``मैं पहले नहीं दे रहा था लेकिन बेटों एवं बहुओं ने मुझे प्यार से फुसलाकर सब पैसा ले लिया । क्या करता । दोनों नालायक थे । कुछ काम तो करते नहीं थे । मैंने सोचा शायद कुछ कमाने लगेंगे ।''
``अरे, तुम्हें तो लगभग सात लाख मिला था । कहां गया सब पैसा - मैंने पूछा।''
``पहले-पहले बहुओं एवं बेटों ने बड़ा प्यार जताया । कहने लगे - पिताजी ! हम एक प्लास्टिक के डिब्बे बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं । एक फैक्ट्री बहुत ही सस्ते दामों पर मिल रही है । केवल सात लाख में । फैक्ट्री आप के नाम ही लेंगे । हम उसे चला लेंगे । आप केवल सात लाख दे दीजिए ।''
गिरधर कुछ देर चुप रहकर फिर बोलने लगे - ``और मैंने फैक्ट्री खरीद ली । बच्चे निकम्मे व अय्याश निकले । सब डुबो दिया । फैक्ट्री तो चला नहीं पाए ऊपर से चार लाख का कर्ज और ले लिया । कर्ज चुकाने के लिए फैक्ट्री को बेचना पड़ा । सब पैसा लूट गया । अब बच्चे मकान को बेचने की जिद कर रहे हैं । मेरी कोई इज्जत नहीं करते बल्कि उल्टा-सीधा सुना और देते हैं । सारे घर में खुद मजे से रहते हैं और मुझे नौकरों वाले इस कमरे में डाल दिया है । मैं बूढ़ा हूं । दिल का मरीज हूं । मेरे मरने का इंतजार करते हैं ये नालायक ।'' ऐसा कहकर गिरधर सुबक-सुबककर रोने लगा ।
मुझे गिरधर की दयनीय हालत देखकर बहुत दु:ख हुआ । गिरधर के बच्चे जवान थे । दूसरा मैं एक बाहर का व्यक्ति था । इसलिए मेरा इन बच्चों को कुछ भी कहना ठीक नहीं था । लेकिन मुझसे रहा नहीं गया। पहले मैंने गिरधर पर गुस्सा उतारा, ``अरे बेवकूफ, तूने इन नालायकों को पैसा दिया ही क्यों ? कभी केवल पैसे से व्यापार नहीं किया जाता । पैसे कमाने के लिए अच्छा व्यापारी होना जरूरी होता है । तू भी कितना बड़ा मुर्ख था जो सारी जिंदगी इन बच्चों के लिए जोड़ता रहा । तूने क्या-क्या गलत काम नहीं किये । रिश्वत ली, बेईमानी की । इन बच्चों के लिए ? तुमने अपने लिए तो कभी जिया ही नहीं । अरे इतना तो समझता कि यदि बच्चे अच्छे हों तो खूद कमा लेते हैं और यदि निकम्मे और आवारा हो तो सब उजाड़ देते हैं । चाहे कितनी भी दुनिया भर की दौलत उनके लिए छोड़ जाओ । क्या मिला तुझे ?''
मैं गुस्से से लाल-पीला था । मैंने तुरन्त उसके दोनों बेटों को बुलाया और उन्हें फटकारने लगा, ``अरे, तुम लोगों को शर्म आनी चाहिए । तुम्हारी मां बचपन में ही मर गई थी । इसी तुम्हारे बाप ने तुम्हें पाला-पोसा । क्या-क्या नहीं किया तुम लोगों के लिए । यह मकान बनवाया । सब सुख सुविधाएं दीं और तुम हो कि अपने बुढ़े बाप को इस तरह रख रहे हो । ये मकान, फ्रिज, टी.वी. इस घर की हरेक चीज अभी गिरधर की है । ध्यान से सुन लो । एक पूरा कमरा गिरधर के लिए खाली कर दो । और यदि तुम्हें यहां रहना है तो गिरधर को 1000 रूपये महीना किराया देना होगा । यदि किराया नहीं दे सकते तो इस महान को खाली कर दो । हम इसे किसी और को किराये पर दे देंगे । यदि भविष्य में कभी अपने बाप को परेशान किया तो पुलिस की सहायता से तुम सबको यहां से बाहर कर दूंगा । यदि तुम बाप को बाप नहीं समझ सकते तो बाप के लिए कोई बेटा, बेटा नहीं । समझ गए तुम सब ।''
गिरधर बीच-बीच में मुझे रोक रहा था, ``अरे दिवाकर मरने दो नालायकों को । हैं तो मेरे बच्चे ही। छोड़ो, जाने दो ।''
मुझे गुस्सा आ रहा था, ``कैसे छोड़ दूं । मुझसे तुम्हारी यह हालत देखी नहीं जाती । चलो तुम मेरे घर । मेरे साथ रहना ।''
``दिवाकर तुम बहुत अच्छे हो । मैंने तुम्हें भी बहुत धोका दिया । तुमसे छुप-छुपकर मैं रिश्वत लेता रहता था । लेकिन तुम हमेशा ईमानदार रहे और आज मेरे जैसे बुरे आदमी से भी दोस्ती का हक अदा कर रहे हो । मुझे माफ़ करना दिवाकर ।'' ऐसा कहकर गिरधर गर्दन नीची करके अपने आंसू पोंछने लगा ।
मैंने फिर कहा, ``चलो, मेरे साथ दिल्ली । मेरे घर । मेरे साथ रहना ।''
गिरधर ने हाथ जोड़कर कहा, ``बहुत-बहुत मेहरबानी भाई । अब मैं इस उम्र में बच्चों को छोड़कर कहां जाउं€गा । मैं यहीं ठीक हूं ।''
``तुम्हारी मरजी ! अच्छा ये कुछ रूपये रख लो ! मुसीबत में काम आएंगे'' - और मेंने 5000 रुपये ज़बरदस्ती गिरधर की जेब में डाल दिये ।
``और सुनो! मेरे घर मे दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले हैं । कभी परेशानी हो तो दिल्ली आ जाना।'' - ऐसा कहकर मैंने गिरधर से हाथ मिलाया और बस पकड़कर अपने घर आ गया ।
इस बात को लगभग पांच महीने ही गुज़रे थे कि एक सुबह मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी, ``फरीदाबाद । गिरधर नाम के एक वृध्द को गला घोंटकर उसी के लड़कों ने मार डाला । पुलिस के अधिकारी ने बताया कि वृध्द का कत्ल जायदाद के लिए किया गया था ।''
यह खबर पढ़कर मुझे अत्यत दु:ख हुआ ।
मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ``गिरधर तो वर्षो पहले मर चुका था । लेकिन आज गिरधर की उन भावनाओं एवं मूल्यों की मौत हुई है जिन्हें वह जिंदगी भर जीता रहा ।''
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