नलनी-ड़ा प्रमोद कुमार
नलनी इतनी सुन्दर तो नहीं थी पर उसका लम्बा कद और उसपर भरा हुआ शरीर हर किसी को आकर्षित कर सकता था । उसका शरीर का रंग कुछ गहरा गेहुआ था पर उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें किसी को भी एक बार उसे देखने को मज़बूर कर सकती थी । नाक बेशक थोड़ी चपटी सी थी पर उसके लम्बे, घने और काले बाल देखने में अच्छे लगते थे । जबभी वह साड़ी पहनकर चलती, उसकी लम्बी चोटी कमर के नीचे तक लहराती थी । उसकी मुसकराहट किसी को भी उसकी और खींचनें के लिए काफ़ी थी । वह दक्षिण भारत के सेलम नामक जिले की थी।
उससे मेरी पहली मुलाकात चार्टटर्ड बस में हुई । मेरा ऑफिस नेरीमन पाइन्ट पर था और उसका ऑफिस दादर में । हम दोनों गोरेगॉव में रहते थे । अक्सर हम साथ-साथ ही बस में सफ़र करते। पूरे रास्ते घर-बाहर की बातें करते । यह रोज़ का सफ़र कब इतना करीब ले आया, हमें पता भी नहीं चला। नलनी 22-23 साल की कुंआरी लड़की थी । हम `दादर बीच' पर घंटों बैठे रहते । कभी हाथ में हाथ ले समुद्र के किनारे-किनारे घुमते तो कभी साथ-साथ भेल-पूरी खाते ।
नलनी एक मध्यम परिवार की लड़की थी । उसकी दो अन्य बहनें भी किसी ऑफिस में कार्यरत थी। उसका पिता शराबी था जो न तो कभी अपनी बेटियों की चिंता करता न ही उससे उसे कोई उम्मीद थी ।
धीरे-धीरे मेरे सम्बन्ध उससे भावनात्मक रुप से प्रगाढ हो गए । हम जब भी बाहर जाते मैं उसे कुछ उपहार खरीद कर दे देता । कभी हेन्ड बेग, कभी चाबी का रिंग तो कभी सलवार सूट । एक दिन उसे एक साड़ी पसन्द आई । साड़ी महंगी थी लेकिन मैंने खरीद दी ।
एक दिन शामको हम `जुहू बीच' पर टहल रहे थे । उसने बताया, ``दीपक, कल मेरी मगंनी हो गई । अगले महिने ही 20 तारीख को मेरी शादी है ।''
मैंने आश्चर्य चकित होकर कहा, ``लेकिन तुमने मुझे पहले नहीं बताया ?''
``क्या बताती ? तुम्हें बुरा लगता । तुम शादी शुदा हो लेकिन तुम्हारी दोस्ती मैं छोड़ नहीं सकती । मैं तुम्हें चाहती हूँ; तुम्हें प्यार करती हूँ । मुझे डर था कि कहीं तुम्हें खो न दूँ ।'' उसने कहा ।
मुझे अच्छा तो नहीं लगा लेकिन अपनी भावनाओं को छुपाकर चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा ।
मैं नलनी से भावनात्मक रूप से बँधा था । इसलिए जब भी हम शामको मिलते, मुझे अच्छा लगता ।
एक शामको हम दादर मार्किट में घूम रहे थे । उसे गले की एक माला पसंद आई । माला पाँच हजार की थी । उसके पास पैसे नहीं थे । वह बोली, ``मेरे पास क्रेडिट कार्ड है ।'' लेकिन दुकानदार ने ``क्रेडिट कार्ड'' से पेमेंट लेने से मना कर दिया । मेरी ज़ेब में पैसे थे । मैंने पेमेंट कर दी । नलनी ने मुसकराते हुए कहा, ``बहुत अच्छी माला है । दीपक तुम मुझे पहनाओ ।''
मैंने माला उसके गले में पहना दी । वह बहुत खुश थी और मैं भी उसके खुश होने में खुश था ।
एक दिन हम `मरीन ड्राइव' पर बैठे थे । उसने मेरी आँखो में अपनी आँखें डालकर कहा, ``दीपक तुम बहुत अच्छे हो । आज़ के जमाने में अपने भी मदद नहीं करते लेकिन तुम हमेशा मेरी मदद करने के लिए तत्पर रहते हो । जानते हो शादी के लिए बहुत तैयारी करनी है । खाने का इंतज़ाम, टैंट-तम्बू का इंतज़ाम और खरीदारी । मेरे पास न गहनें है और न ही अच्छे कपड़े । तुम जानते हो पिताजी के पास कोई पैसा-वैसा नहीं है । सब मुझे ही करना पड़ेगा ।''
मैं उसके पिता को जानता था । वह कभी इसी कम्पनी में काम करता था जिसमें मैं अब करता हूँ । निहायत ही पियक्कड़ किस्म का आदमी था वो । जाने कितने व्यक्तियों से उसने पैसे उधार ले रखे थे । मैंने बीच में ही टोकते हुए कहा, ``मेरे सेविंग खाते में कुछ पैसे पड़े है । वे इस वक्त तुम्हारे काम आ सकते है ।''
नलनी चुपचाप सुनती रही। कुछ नहीं बोली । अगले दिन मैंने उसे 30 हज़ार रुपये लाकर दे दिये ।उसने पैसे लेते हुए कहा, ``लेकिन मैं तुमसे इतने पैसे कैसे ले सकती हूँ ?''
``रख लो । कपड़े आदि खरीद लेना ।'' मैंने जवाब दिया । उसने वे पैसे अपनी पर्स में रख लिए ।
मैंने जिदंगी में पैसे को कभी महत्व नहीं दिया बल्कि हमेशा सच्चा प्यार, दोस्ती और इन्सानियत को आपस के सम्बन्धों को कायम रखने के लिए जरुरी समझा । मैंने कभी नहीं चाहा कि मेरी वजह से किसी का दिल दु:खे । शायद यही भावनाएँ मेरे लिए नलनी को पैसा देने का कारण बन गई ।
मेरा ट्रांसफर मुम्बई से बंगलोर हो गया । नलनी की भी शादी हो चुकी थी । उसका पति बैंक में एक अधिकारी था ।
एक साल बाद मैं ऑफिस के कार्य से मुम्बई आया । वहां मैं प्लाज़ा होटल में ठहरा । मुझे अचानक नलनी की याद आई । सोचा क्यों न उसका हालचाल जाना जाए । नलनी के ऑफिस का पी.आर.ओ. मेरा दोस्त था । मैंने उसे फोनकर होटल में बुला लिया । उसका नाम संजय भटनागर था । संजय सायं आ गया । पहले तो हमने एक दूसरे का हालचाल पूछा फिर साथ-साथ `डीनर' करने लगे । बातों ही बातों में मैंने संजय से नलनी के बारे में पूछा।
उसने बताया, ``अरे दीपक, वह तो ऐश कर रही है । मर्दों को पटाने में तो वह माहिर है । उसने बॉस को पटाकर पदोन्नति ले ली है । वह अब बड़ी ऑफिसर बन गई है । बोरीवली में उसने अपना एक फलैट खरीद लिया है ।''
मैंने चकित होकर पूछा, ``लेकिन संजय, केवल एक साल में उसके पास इतने पैसे कहाँ से आ गए ।''
संजय ने तुरंत जवाब दिया, ``पैसे देने वाले बेवकूफ़ मर्द बहुत मिल जाते हैं । हर मर्द की कमज़ोरी होती है औरत । औरत का क्या बिगड़ता है । वह तो बस अपनी बदनामी से डरती है । यदि उसे यह यकीन हो जाए कि उसकी बात छुपी रहेगी तो वह किसी के भी साथ जा सकती है ।''
कुछ देर बाद संजय चला गया । देर रात तक संजय की कही बातें मेरे कानों में गूजंती रही ।
अगली सुबह मैंने नलनी को उसके ऑफिस में फोन किया । नलनी पहले तो मेरी आवाज़ सुनकर सकपका-सी गई; फिर बोली, ``हैलो दीपक ! क्या हाल है ।''
मैंने पूछा, ``नलनी, तुम कैसी हो ?''
उसने तुरंत जवाब दिया, ``मैं खुश हूँ । तुम कैसे हो ?''
मैंने कहा, ``मैं ठीक हूँ ।''
``बधाई हो, तुम एक बड़ी अधिकारी बन गई हो ।'' मैंने कहा ।
उसने हसँते हुए पूछा, ``क्या तुम्हारी पदोन्नति हुई ?''
मैंने धीरे से जवाब दिया, ``नहीं ।''
और मैं चुप सा हो गया । तभी नलनी ने पूछा, ``तुम कहाँ ठहरे हो ?''
``प्लाजा होटल में '' मैंने उत्तर दिया ।
``क्या मैं आज रात तुम्हारे पास आऊँ ?'' उसने धीरे से पूछा। मैंने कहा, ``नहीं । क्या तुम्हे अपने पति से काई डर नहीं लगता ?''
नलनी ने बेशर्मी से जबाब दिया, ``दीपक, तुम भरोसेमंद दोस्त हो । मैं ऑफिस के कार्य से बाहर जाने का बहाना बनाकर आ सकती हू । इसकी चिंता मत करो ।''
मैं उसकी स्पष्ट बातें सुनकर घबरा सा गया । मैंने तुरंत कहा, ``नहीं, यह खुद से और अपने जीवन साथी से धोखा होगा ।''
वह कुछ देर चुप रही और फिर बोली, ``लेकिन मैं तुम्हारे पैसे कैसे वापिस करुँगी ?''
मैं उसकी बातें सुनकर आश्चर्य चकित हो गया। कुछ क्रोधित होकर बोला, ``मेरे पैसे वापिस करने की कोई जर€रत नहीं।'' और मैंने गुस्से में रिसीवर रख दिया।
आज उन बातों को गुज़रे 15 साल बीत चुके है । न तो मैं कभी इस दौरान नलनी से मिला और न ही उसके बारे में जानने की इच्छा हुई ।
लेकिन दो दिन बाद ही उसका एक फोन आया, फोन पर वह रो रो कर कह रही थी ``दीपक, मैं बड़ी मुसीबत में हूँ । मेरा पति मुझे 10 साल पहले ही छोड़ गये । मुझे कैंसर हो गया । मैंने कैंसर के इलाज़ में सब कुछ गवाँ दिया है। मैं जिदंगी में अकेली रह गई हूँ । कृपया मेरी मदद करो ।''
पता नहीं मुझे क्या हुआ । मैंने उसकी बातें सुनकर तुरंत टेलिफोन काट दिया । मुझे नलनी से नफ़रत सी हो गई थी ।
लेकिन एक साल बाद संजय का फोन आया । नलनी मर चुकी थी ।
आज जब भी मैं नलनी के बारे में सोचता हूँ तो मेरे अन्दर बैठा व्यक्ति हमेशा मुझे धिकारते हुए कहता रहता है, ``दीपक, बेशक नलनी बेवफ़ा थी लेकिन तुम तो अपने आपको बहुत बड़े आदर्शवादी इन्सान कहते हो । तुम तो स्वयं को उसका दोस्त कहते थे । क्या तुमने नलनी के साथ अपनी दोस्ती का फर्ज़ निभाया ?''
- O O O -
नलनी इतनी सुन्दर तो नहीं थी पर उसका लम्बा कद और उसपर भरा हुआ शरीर हर किसी को आकर्षित कर सकता था । उसका शरीर का रंग कुछ गहरा गेहुआ था पर उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें किसी को भी एक बार उसे देखने को मज़बूर कर सकती थी । नाक बेशक थोड़ी चपटी सी थी पर उसके लम्बे, घने और काले बाल देखने में अच्छे लगते थे । जबभी वह साड़ी पहनकर चलती, उसकी लम्बी चोटी कमर के नीचे तक लहराती थी । उसकी मुसकराहट किसी को भी उसकी और खींचनें के लिए काफ़ी थी । वह दक्षिण भारत के सेलम नामक जिले की थी।
उससे मेरी पहली मुलाकात चार्टटर्ड बस में हुई । मेरा ऑफिस नेरीमन पाइन्ट पर था और उसका ऑफिस दादर में । हम दोनों गोरेगॉव में रहते थे । अक्सर हम साथ-साथ ही बस में सफ़र करते। पूरे रास्ते घर-बाहर की बातें करते । यह रोज़ का सफ़र कब इतना करीब ले आया, हमें पता भी नहीं चला। नलनी 22-23 साल की कुंआरी लड़की थी । हम `दादर बीच' पर घंटों बैठे रहते । कभी हाथ में हाथ ले समुद्र के किनारे-किनारे घुमते तो कभी साथ-साथ भेल-पूरी खाते ।
नलनी एक मध्यम परिवार की लड़की थी । उसकी दो अन्य बहनें भी किसी ऑफिस में कार्यरत थी। उसका पिता शराबी था जो न तो कभी अपनी बेटियों की चिंता करता न ही उससे उसे कोई उम्मीद थी ।
धीरे-धीरे मेरे सम्बन्ध उससे भावनात्मक रुप से प्रगाढ हो गए । हम जब भी बाहर जाते मैं उसे कुछ उपहार खरीद कर दे देता । कभी हेन्ड बेग, कभी चाबी का रिंग तो कभी सलवार सूट । एक दिन उसे एक साड़ी पसन्द आई । साड़ी महंगी थी लेकिन मैंने खरीद दी ।
एक दिन शामको हम `जुहू बीच' पर टहल रहे थे । उसने बताया, ``दीपक, कल मेरी मगंनी हो गई । अगले महिने ही 20 तारीख को मेरी शादी है ।''
मैंने आश्चर्य चकित होकर कहा, ``लेकिन तुमने मुझे पहले नहीं बताया ?''
``क्या बताती ? तुम्हें बुरा लगता । तुम शादी शुदा हो लेकिन तुम्हारी दोस्ती मैं छोड़ नहीं सकती । मैं तुम्हें चाहती हूँ; तुम्हें प्यार करती हूँ । मुझे डर था कि कहीं तुम्हें खो न दूँ ।'' उसने कहा ।
मुझे अच्छा तो नहीं लगा लेकिन अपनी भावनाओं को छुपाकर चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा ।
मैं नलनी से भावनात्मक रूप से बँधा था । इसलिए जब भी हम शामको मिलते, मुझे अच्छा लगता ।
एक शामको हम दादर मार्किट में घूम रहे थे । उसे गले की एक माला पसंद आई । माला पाँच हजार की थी । उसके पास पैसे नहीं थे । वह बोली, ``मेरे पास क्रेडिट कार्ड है ।'' लेकिन दुकानदार ने ``क्रेडिट कार्ड'' से पेमेंट लेने से मना कर दिया । मेरी ज़ेब में पैसे थे । मैंने पेमेंट कर दी । नलनी ने मुसकराते हुए कहा, ``बहुत अच्छी माला है । दीपक तुम मुझे पहनाओ ।''
मैंने माला उसके गले में पहना दी । वह बहुत खुश थी और मैं भी उसके खुश होने में खुश था ।
एक दिन हम `मरीन ड्राइव' पर बैठे थे । उसने मेरी आँखो में अपनी आँखें डालकर कहा, ``दीपक तुम बहुत अच्छे हो । आज़ के जमाने में अपने भी मदद नहीं करते लेकिन तुम हमेशा मेरी मदद करने के लिए तत्पर रहते हो । जानते हो शादी के लिए बहुत तैयारी करनी है । खाने का इंतज़ाम, टैंट-तम्बू का इंतज़ाम और खरीदारी । मेरे पास न गहनें है और न ही अच्छे कपड़े । तुम जानते हो पिताजी के पास कोई पैसा-वैसा नहीं है । सब मुझे ही करना पड़ेगा ।''
मैं उसके पिता को जानता था । वह कभी इसी कम्पनी में काम करता था जिसमें मैं अब करता हूँ । निहायत ही पियक्कड़ किस्म का आदमी था वो । जाने कितने व्यक्तियों से उसने पैसे उधार ले रखे थे । मैंने बीच में ही टोकते हुए कहा, ``मेरे सेविंग खाते में कुछ पैसे पड़े है । वे इस वक्त तुम्हारे काम आ सकते है ।''
नलनी चुपचाप सुनती रही। कुछ नहीं बोली । अगले दिन मैंने उसे 30 हज़ार रुपये लाकर दे दिये ।उसने पैसे लेते हुए कहा, ``लेकिन मैं तुमसे इतने पैसे कैसे ले सकती हूँ ?''
``रख लो । कपड़े आदि खरीद लेना ।'' मैंने जवाब दिया । उसने वे पैसे अपनी पर्स में रख लिए ।
मैंने जिदंगी में पैसे को कभी महत्व नहीं दिया बल्कि हमेशा सच्चा प्यार, दोस्ती और इन्सानियत को आपस के सम्बन्धों को कायम रखने के लिए जरुरी समझा । मैंने कभी नहीं चाहा कि मेरी वजह से किसी का दिल दु:खे । शायद यही भावनाएँ मेरे लिए नलनी को पैसा देने का कारण बन गई ।
मेरा ट्रांसफर मुम्बई से बंगलोर हो गया । नलनी की भी शादी हो चुकी थी । उसका पति बैंक में एक अधिकारी था ।
एक साल बाद मैं ऑफिस के कार्य से मुम्बई आया । वहां मैं प्लाज़ा होटल में ठहरा । मुझे अचानक नलनी की याद आई । सोचा क्यों न उसका हालचाल जाना जाए । नलनी के ऑफिस का पी.आर.ओ. मेरा दोस्त था । मैंने उसे फोनकर होटल में बुला लिया । उसका नाम संजय भटनागर था । संजय सायं आ गया । पहले तो हमने एक दूसरे का हालचाल पूछा फिर साथ-साथ `डीनर' करने लगे । बातों ही बातों में मैंने संजय से नलनी के बारे में पूछा।
उसने बताया, ``अरे दीपक, वह तो ऐश कर रही है । मर्दों को पटाने में तो वह माहिर है । उसने बॉस को पटाकर पदोन्नति ले ली है । वह अब बड़ी ऑफिसर बन गई है । बोरीवली में उसने अपना एक फलैट खरीद लिया है ।''
मैंने चकित होकर पूछा, ``लेकिन संजय, केवल एक साल में उसके पास इतने पैसे कहाँ से आ गए ।''
संजय ने तुरंत जवाब दिया, ``पैसे देने वाले बेवकूफ़ मर्द बहुत मिल जाते हैं । हर मर्द की कमज़ोरी होती है औरत । औरत का क्या बिगड़ता है । वह तो बस अपनी बदनामी से डरती है । यदि उसे यह यकीन हो जाए कि उसकी बात छुपी रहेगी तो वह किसी के भी साथ जा सकती है ।''
कुछ देर बाद संजय चला गया । देर रात तक संजय की कही बातें मेरे कानों में गूजंती रही ।
अगली सुबह मैंने नलनी को उसके ऑफिस में फोन किया । नलनी पहले तो मेरी आवाज़ सुनकर सकपका-सी गई; फिर बोली, ``हैलो दीपक ! क्या हाल है ।''
मैंने पूछा, ``नलनी, तुम कैसी हो ?''
उसने तुरंत जवाब दिया, ``मैं खुश हूँ । तुम कैसे हो ?''
मैंने कहा, ``मैं ठीक हूँ ।''
``बधाई हो, तुम एक बड़ी अधिकारी बन गई हो ।'' मैंने कहा ।
उसने हसँते हुए पूछा, ``क्या तुम्हारी पदोन्नति हुई ?''
मैंने धीरे से जवाब दिया, ``नहीं ।''
और मैं चुप सा हो गया । तभी नलनी ने पूछा, ``तुम कहाँ ठहरे हो ?''
``प्लाजा होटल में '' मैंने उत्तर दिया ।
``क्या मैं आज रात तुम्हारे पास आऊँ ?'' उसने धीरे से पूछा। मैंने कहा, ``नहीं । क्या तुम्हे अपने पति से काई डर नहीं लगता ?''
नलनी ने बेशर्मी से जबाब दिया, ``दीपक, तुम भरोसेमंद दोस्त हो । मैं ऑफिस के कार्य से बाहर जाने का बहाना बनाकर आ सकती हू । इसकी चिंता मत करो ।''
मैं उसकी स्पष्ट बातें सुनकर घबरा सा गया । मैंने तुरंत कहा, ``नहीं, यह खुद से और अपने जीवन साथी से धोखा होगा ।''
वह कुछ देर चुप रही और फिर बोली, ``लेकिन मैं तुम्हारे पैसे कैसे वापिस करुँगी ?''
मैं उसकी बातें सुनकर आश्चर्य चकित हो गया। कुछ क्रोधित होकर बोला, ``मेरे पैसे वापिस करने की कोई जर€रत नहीं।'' और मैंने गुस्से में रिसीवर रख दिया।
आज उन बातों को गुज़रे 15 साल बीत चुके है । न तो मैं कभी इस दौरान नलनी से मिला और न ही उसके बारे में जानने की इच्छा हुई ।
लेकिन दो दिन बाद ही उसका एक फोन आया, फोन पर वह रो रो कर कह रही थी ``दीपक, मैं बड़ी मुसीबत में हूँ । मेरा पति मुझे 10 साल पहले ही छोड़ गये । मुझे कैंसर हो गया । मैंने कैंसर के इलाज़ में सब कुछ गवाँ दिया है। मैं जिदंगी में अकेली रह गई हूँ । कृपया मेरी मदद करो ।''
पता नहीं मुझे क्या हुआ । मैंने उसकी बातें सुनकर तुरंत टेलिफोन काट दिया । मुझे नलनी से नफ़रत सी हो गई थी ।
लेकिन एक साल बाद संजय का फोन आया । नलनी मर चुकी थी ।
आज जब भी मैं नलनी के बारे में सोचता हूँ तो मेरे अन्दर बैठा व्यक्ति हमेशा मुझे धिकारते हुए कहता रहता है, ``दीपक, बेशक नलनी बेवफ़ा थी लेकिन तुम तो अपने आपको बहुत बड़े आदर्शवादी इन्सान कहते हो । तुम तो स्वयं को उसका दोस्त कहते थे । क्या तुमने नलनी के साथ अपनी दोस्ती का फर्ज़ निभाया ?''
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