Tuesday, October 6, 2009

बड़प्पन-ड़ा प्रमोद कुमार

बड़प्पन-ड़ा प्रमोद कुमार




 

अस्तांचल ने डूबते हुए सूर्य से पूछा, "महाराज, आपके जाने के बाद इस वि‍श्व की सेवा कौन करेगा? कौन इस सृष्टि‍ को अपनी रोशनी से जागृत एवं प्रकाशि‍त रखेगा?"

धधकते एवं फड़कते हुए मि‍ट्टी के छोटे से दीपक ने जोश में आकर कहाँ, "स्वामी, आपके जाने के बाद इस दुनि‍यां की सेवा मैं करूँगा । मैं इस सृष्टि‍ को अपनी रोशनी से प्रकाशि‍त करूँगा । आप मुझे छोटा मत समझि‍ए । मैं मि‍ट्टी का हूँ तो क्या हुआ, पर इस दुनि‍या की सेवा करना खूब जानता हूँ । लेकि‍न ......." ऐसा कहते कहते दीपक मौन हो गया ।

अस्तांचल ने दीपक से पूछा, "क्यों दीपक । तुम तो बहुत डींग मार रहे थे । क्या हुआ? तुम्हारा जोश ठंडा पड़ गया?"

दीपक ने उत्तर देते हुए कहाँ, "ऐसी कोई बात नहीं । न ही मैं डींग मार रहा हूँ और न ही मेरा जोश ठंडा पड़ा है । लेकि‍न ये जो हवा है ना - हाँ, यही हवा मुझे बुझाने का यत्न करती रहती है । वैसे मुझे अपनी ज्योति‍ बुझ जाने की चिंता नही। वह तो चाहे कभी भी चली जाए । लेकि‍न मुझे चिंता तो इस बात की है कि‍ ज्योति‍ बुझ जाने के बाद इस दुनि‍याँ को रोशनी कौन देगा ।"

सूर्य भी मि‍ट्टी के फड़कते हुए दीपक की बातें सुन रहा था । अस्तांचल और सूर्य दोनों की आखों में "छोटे दीपक" की बाते सुनकर ऑसू भर आये । सूर्य ने कहा, "धन्य हो दीपक । तुम्हारे जैसों की ही इस नभ मंडल व भू-मंडल को आवश्यकता है । मैं इतना शक्ति‍शाली होता हुआ भी, जि‍सका जल, वायु, इन्द्र आदि‍ देवता भी लोहा मानते हैं, तुम्हारे आगे अपना मस्तक झुकाता हूँ ।

अस्तांचल मन ही मन सोचने लगा, - "कमाल है, कुछ तो ऐसे होते हैं जो खुद जलकर दुनि‍या को रोशन करते हैं, जीवन देते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो दूसरों को, दीपक जैसों को, अपनी स्वार्थ भरी ईर्ष्या के कारण नष्ट करने में लगे हुए हैं ।"

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