Tuesday, October 6, 2009

बांसुरीवाला-ड़ा प्रमोद कुमार

बांसुरीवाला-ड़ा प्रमोद कुमार


आज छुट्टी है और छुट्टी के दि‍न मुझे अकेले नदी के कि‍नारे घुमना बहुत अच्छा लगता है । मैंने कुछ हल्का नाश्ता कि‍या और घर से नदी की ओर नि‍कल पड़ा । नदी के कि‍नारे अचानक मुझे बांसुरी की मधुर आवाज सुनाई दी । आवाज में इतना दर्द था कि‍ मैं उसकी तरफ खींचा चला गया । पास जाकर मैंने देखा - एक व्यक्ति‍ जि‍सकी उम्र 35 - 40 वर्ष के लगभग होगी , बांसुरी बजा रहा था । लम्बा सा कुर्ता, चुडीदार पाजामा , बि‍खरे बाल और चेहरे पर खामोशी के घने बादल - वह सचमुच एक पुराने मकान की तरह लग रहा था जि‍से कि‍सी ने बहुत पहले त्याग दि‍या हो । उसकी बांसुरी की आवाज मेरे दि‍ल के जख़्मों को हरा कर रही थी । लेकि‍न मुझे आज भी याद है जब यहीं बांसुरी की आवाज मेरे दि‍ल में मोहब्बत का एक ऐसा अहसास पैदा कर देती थी कि‍ मन प्यार में डूब जाता था और खूद को खूद की खबर नहीं रहती थी । मन मस्त हवा की तरह डोल जाता रहता था । मुझे 15 साल पुरानी हर घटना चि‍त्रपट पर फि‍ल्म की तरह नज़र आने लगी ।

वह मेरा छोटा सा गाँव और पास ही नदि‍याँ कि‍नारे चांदनी का गाँव । मुझे आज भी याद है वो दि‍न जब मैंने चांदनी को पहली बार देखा था । पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता था कि‍ यहीं वह लडकी है जि‍सके लि‍ए मैंने यह जन्म लि‍या । यहीं वहीं गंगा है जहाँ मुझे मुक्ति‍ मि‍ल सकती है ।

लोग कहते हैं कि‍ हर व्यक्ति‍ में जन्मजात कुछ `ब्रेन केमि‍कल्स ' होते हैं जो उसे एक व्यकि‍त वि‍शेष की तरफ आकर्षि‍त होने को उकसाते हैं । चांदनी की तरफ मेरा आकर्षण भी कुछ ऐसा ही था । बि‍लकुल साधारण-सी थी चांदनी । लेकि‍न जाने क्यों मुझे वह दुनि‍याँ की सबसे सुन्दर औरत लगती । उसका मुस्कराना, उसका चलना, उसके हाव - भाव सब कुछ जैसे चुम्बक की तरह मुझे खिंचते थे ।

हमें जब भी मौका मि‍लता हम हरे-भरे खेतों को पार कर नदी कि‍नारे चले जाते । उसे मेरा बांसुरी बजाना बहुत अच्छा लगता था । वह बार-बार फरमाईश करती -"उस गाने की धुन बजाओ न ।" और मैं बांसुरी बजाता रहता । जब थक जाता तो मैं उसकी गोद में सि‍र रखकर लेट जाता । चांदनी धीरे - धीरे मेरे बालों में अपनी उंगलि‍यां फेरती रहती । कभी ऐसा भी होता कि‍ वह मेरी गोद में अपना सि‍र रख आँखे बंद कर लेट जाती । मैं कभी उसकी बंद पलकों को छूता तो कभी उसके होठों पर अपनी उंगलि‍याँ घुमाता । दि‍न कब ढल जाता पता ही नहीं चलता । क्या - क्या कस्में नहीं खाई हमने । साथ - साथ जीने की और साथ-साथ मरने की । तभी मुझे एक महि‍ने के लि‍ए दूसरे गांव जाना पडा, अपने मामाजी के यहाँ । एक महि‍ने के बाद जब मैं मामा के गाँव से वापि‍स आकर चांदनी से मि‍ला तो उसका व्यवहार कुछ र€खा - र€खा सा पाया । मुझे आज भी याद है वह 15 मई की शाम जब मैंने चांदनी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा था - " चांदनी अब मैं तुम्हारे बि‍ना जी नहीं सकता, मैं अपने को अपूर्ण महसूस करता हूँ ! मेरी पूर्णता तुम्हारे साथ जिंदगी जीने में है न कि‍ तुमसे जुदा रहने में ! "

लेकि‍न उसने तुरंत अपना हाथ झटकते हुए कहा था - " मैं तुमसे कोई प्यार-व्यार नहीं करती । यह तो महज एक मजाक था । "
"चांदनी, तुम यह क्या कह रही हो ? मुझे यकीन नहीं हो रहा है, क्या वे कस्मे-वादे सब झूठे थे? " मैंने क्रोध में उसके कंधों को झकझोरते हुए कहा था ।

" अरे , वह सब खेल था । महज एक नाटक था। और तुम इस नाटक को हक़ीक़त मान बैठे। सचमुच तुम बेवकूफ व्यक्ति‍ हो। " चांदनी ने दो टूक जवाब दि‍या था ।
उस दि‍न मेरे पैरों तले की ज़मीन खि‍सक गई थी । मैं पेड़ से टूटे पत्ते की तरह धरती गि‍र पडा था । और चांदनी मुझे अपने हाल पर अकेला छोड़कर चली गई ।
मैं गाँव छ़ोडकर यहां मामाजी के गांव आ गया । बहुत कोशि‍श की लेकि‍न चांदनी को भूला न पाया । ऐसा लगता है जैसे वह मेरे लहू के हर कतरे में बह रही हो । उसने मेरी रातों की नींद और दि‍न का चैन चुरा लि‍या था । मैं जिंदा लाश बन गया था। आज चांदनी से मि‍ले 15 साल बीत चुके है लेकि‍न उसकी याद आज भी मेरी जिंदगी के हर लम्हें का अभि‍न्न हि‍स्सा बनी हुई है । चांदनी की हर चीज को मैंने दुनि‍या से छुपाकर रखा है जो मेरे वास्ते अनमोल खजाना है। जब भी उसके दि‍ये पुराने गानों की कैसेट सुनता हूँ तो उसके साथ गुज़ारा हुए हर पल मेरे मानस पटल पर चलचि‍त्र की तरह अंकि‍त हो जाता है। उसका दि‍या हर तोहफ़ा उसकी बेवफ़ाई की एक लम्बी दास्तान बयां करता है। लोग कि‍तनी खुबसूरती से अपने चेहरे पर दूसरा चेहरा लगा लेते हैं, यह मुझे कभी-कभी यकीन ही नही होता ।

तभी मुझे एहसास हुआ कि‍ बांसुरीवाला वह व्यक्ति‍ मुझे टकटकी नज़र से देख रहा है । उसने बांसुरी बजाना बंद कर दि‍या था । मैंने तुरंत अपने आपको संभाला और कहा "आप बांसुरी बहुत अच्छी बजाते हैं । " मगर उसने कोई जवाब नही दि‍या ।

मैंने फि‍र बात करने की कोशि‍श की - " आपकी बांसुरी की धुन दि‍ल की गहराईयों को छू लेती है । दर्द में भी सुख का सुखद सुकून देती है । जैसे कोई रि‍सते घावों पर मलहम लगा रहा हो । "

मैंने शायद बांसुरीवाले की कि‍सी दु:खती नब्ज़ पर हाथ रख दि‍या था । उसने गम्भीर मुद्रा में कहा , " आवाज़ बेशक बांसुरी से नि‍कलती है लेकि‍न संगीत बांसुरी बजाने वाले के दि‍ल से आता है । और अगर इस संगीत में संगीतकार की आत्मा समा जाए तो वह दवा बन जाता है ।
" मुझे वह व्यक्ति‍ एक दार्शनि‍क सा प्रतीत हुआ - एक संगीत-दार्शनि‍क । मैंने उससे प्रार्थना भाव से पूछा " क्या आप मुझे संगीत सि‍खाएंगे । मुझे संगीत में बहुत रुचि‍ है । "
" ठीक है , तुम मुझे यही नदी के कि‍नारे , इसी समय ,इसी पेड़ के नीचे अगले इतवार को मि‍लो। हाँ , अपनी बांसुरी साथ लाना नही भूलना । " उस ने उठते हुए कहा ।
इस तरह मैं हर इतवार को नदी के कि‍नारे उस बरगद के पेड़ के नीचे पहुँच जाता और वहां घंटों संगीत साधना में रम जाता; रि‍याज मेरा नि‍त्यकर्म हो गया था। वह मुझे बहुत अच्छी तरह से संगीत सि‍खाता था। धीरे - धीरे हमारे बीच काफी घनि‍ष्ठता हो गई । उस का नाम ज़ैदी था । एक दि‍न मैंने पूछा , " ज़ैदी मि‍या , आप बहुत ही ग़मगी़न मि‍ज़ाज के लगते है । कोई दर्द है जो आप सीने में दबायें बैठे हैं । शायद वही दर्द आपके संगीत में लय भरता है । "

मेरी बातें सुनकर जै़दी मि‍या कुछ गुम-से हो गए । फि‍र कुछ देर खामोश रहने के बाद बोले - " मेरी नई - नई शादी हुई थी । मुझे अपनी पत्नी से अपार प्यार था । शादी के बाद चार दि‍न हम साथ रह सके। सामाजि‍क रीति‍-रि‍वाज़ों के अनुसार दुल्हन को शादी हे चार दि‍न बाद फि‍र अपने मायके जाना होता है। उसका भाई आया और अपनी बहन को लेकर चला गया । मुझे उस दि‍न बेहद अफ्सोस हुआ था। मुझे पत्नी की जुदाई का ग़म खाए जा रहा था । मैंने तुरत नि‍श्चय कि‍या कि‍ क्यों न चुपके से ससुराल जाकर पत्नी को आश्चर्यचकि‍त कि‍या जाए ? पत्नी को अपने मायके गए केवल सात दि‍न ही हुए थे कि‍ मैं पत्नी को लि‍वाने अपनी ससुराल चल पडा। मैं 15 मई की वह शाम कभी भूल नही सकता । सूर्य देवता का अस्तांचल में जाने का कुछ ही समय शेष था ।मैं खेतों के बीच की पंगडंडि‍यों से अपनी राह नि‍कालते हुए कि‍सी तूफान की तरह अपनी ससुराल जल्दी ही पहुँुचना चाहता था । मैं चांदनी के गाँव के करीब पहँुच चुका था । तभी मुझे कुछ आवाज़े सुनाई देने लगी । पास ही खेतों के बीच एक पेड़ के नीचे एक लडका और एक लड़की हाथ में हाथ लि‍ये बैठे थे। लडका लडकी से कह रहा था , " चांदनी अब मैं तुम्हारे बि‍ना जी नहीं सकता, मैं अपने को अपूर्ण महसूस करता हूँ ! मेरी पूर्णता तुम्हारे साथ जिंदगी जीने में है न कि‍ तुमसे जुदा रहने में ! "

जैदी मि‍या भावभरी मुद्रा में बोलते रहे - " मैंने ध्यान से देखा - अरे ,यह तो चांदनी हैं । मेरी पत्नी। वह दृश्य देखकर मैं चकि‍त रह गया । दि‍ल टूट चुका था। मैं तुरंत उल्टे पांव लौट पड़ा। मैं अपने गांव तो वापि‍स जा नही पाया , हाँ इसी गांव में आकर रहने लगा। शुरु में कुछ दि‍न तो मुझे बहुत बुरा लगा लेकि‍न बाद में मैंने अपने मन को समझा लि‍या । यहाँ मैंने एक संगीत वि‍द्यालय खोल लि‍या जहाँ मैं बच्चों को संगीत सि‍खाता हूँ।"

ज़ैदी मि‍या ने अपनी जिंदगी का अनुभव मुझे बाँटते हुए कहा - " मैंने अपने जीवन में यह महसूस कि‍या है कि‍ आदमी की ज़िंदगी अनमोल होती है । जि‍से कि‍सी सत्कार्य में लगाया जाना चाहि‍ए। कि‍सी खुदग़्ा़र्ज एवं बेवफ़ा के लि‍ए इसे बर्बाद करने का मतलब है ज़िंदगी की तोहि‍न करना।"

मैं ज़ैदी मि‍यां की बातें सुनकर चुपचाप सोचने लगा , "न तो चांदनी बेवफ़ा है और न ही कोई और । शायद वक्त ही है जो कि‍सी से वफ़ा नहीं कर पाया - न चांदनी से , न ज़ैदी से और न ही मुझसे ! "
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1 comment:

  1. बहुत मार्मिक दास्ताँ.
    सचमुच , वक्त बड़ा बेरहम होता है.
    एक ही तीर से दो शरीफ इंसानों को मार गिराया.
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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